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होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥

भावार्थ:- आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं.

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥5॥

भावार्थ:- कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो. श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर और सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही है परन्तु मेरी कविता सुंदर नही है. यह बेमेल है अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता, इसी की मुझे चिन्ता है.

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