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प्रजा औऱ मंत्रिगणों में तरह-तरह की बातें होने लगीं. सभी दबे मुंह वशिष्ठ को कोसने लगे. कोई कहता बूढे वशिष्ठ सठिया गये हैं तो कोई उन्हें पागल बताता. कोई कहता नहीं ये भगवान श्रीराम के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं.
कुछ बुद्धिमानजनों की राय अलग थी. वे यह कह रहे थे कि वशिष्ठ जैसे संयत ऋषि ने यह कहा है तो उसे आसक्ति कहना ठीक नहीं. संभवतः श्रीराम की इच्छा से ही कोई लीला है.
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कोई कहता कि गुरू परीक्षा ले रहे हैं कि भगवान श्र राम भी लोगों के सामने अपना आपा खो सकते हैं या फिर वे जो कहते हैं, करते नहीं. जितने मुख उतनी बातें हो रही थीं.
हो हल्ले के बीच ही श्रीराम ने मां सीता को बुलवाया.
सीताजी के कानों तक भी बात पहुंची थीं. वह स्वयं विस्मय में थीं कि यह सब क्या हो रहा है पर स्वामी का आदेश था तो उसे स्वीकार ही करना था.
मुस्कुराते हुये भगवान राम ने सीताजी का हाथ अपने हाथ में लेते हुये गुरू से कहा- गुरुवर आप स्त्रीदान का उचित मंत्र पढें मैं सीता को दान में देने के लिये तत्पर हूं.
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वशिष्ठ ने श्रीराम और सीता दोनों को देखा. भगवान अपने भाव में मुस्कुरा रहे थे. माता शीश झुकाए खड़ी थीं. वशिष्ठ ने मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया.
वहां उपस्थित सभी लोग सकते में थे. मंत्र पढने के बाद वशिष्ठ ने सीताजी से कहा कि वे उनके पीछे आ जाएं. सीताजी बहुत ही खिन्न मन से गुरु वशिष्ठ के पीछे जा खड़ी हुई.
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