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श्रीराम ने चिंतामणि और कामधेनु को श्रीवशिष्ठजी को देने की घोषणा की, पर वशिष्ठ दान लेने को आगे ही नहीं आये. श्रीराम बड़े आश्चर्य में थे.

समस्त भूमंडल से ऋषिगण, देवगण आए. यक्ष, गंधर्व, नाग किन्नर सभी आए और दान प्राप्त किया पर उनके गुरू ही नहीं आ रहे. क्या गुरूवर अप्रसन्न हैं? क्या मुझसे या मेरे परिजनों से अंजाने में कोई धृष्टता हो गई?

श्रीराम इन्हीं विचारों में थे. अपनी चिंता उन्होंने भाइयों और मंत्रियों से भी कही. मंत्रियों ने सुझाव दिया कि आप स्वयं गुरू के पास जाएं और इस संदर्भ में पूछें.

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भगवान गुरू के पास और विनीत भाव से कहा- गुरुवर आप इस दान को स्वीकार कर मेरे यज्ञ को पूर्ण करें. आप यदि दान नहीं स्वीकारेंगे तो यज्ञ पूरा ही न होगा. मुझसे कोई अपराध हुआ है तो क्षमा करें पर यज्ञ पूर्ण करें.

वशिष्ठ ने कहा- श्रीराम अपराध तो ऐसा कोई नहीं हुआ है पर आपने जिन वस्तुओं को प्रदान करने की घोषणा कर दी उसकी उपयोगिता समझ नहीं आती मुझे. नंदिनी जैसी श्रेष्ठ गाय पहले से ही मेरे पास है. फिर मेरे पास कामधेनु की क्या आवश्यकता है? यह चिंतामणि तो ठीक पर मैं गोदान में कामधेनु लेकर क्या करूंगा? इससे मेरी तृप्ति नहीं होने वाली.

श्रीराम नतमस्तक होकर बोले- गुरुवर आपकी आज्ञा शिरोधार्य है. आप मुझे आदेश करें कि आपकी तृप्ति किस प्रकार के दान से होगी. मैं आपकी तृप्ति के लिए वह भेंट आपको अवश्य लाकर दूंगा.

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वशिष्ठ थोड़े गंभीर हुए फिर बोले- हे कोसलाधिपति, आप सर्वसमर्थवान है. आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो अपनी घोषणा के मुताबिक आभूषणों सहित अपनी पत्नी सीता का दान कर दें.

वशिष्ठ का इतना कहना था कि वहां हाहाकार मच गया.

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