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दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा ॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा ॥5॥
भावार्थ:- दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊंच-नीच, अमृत-विष, सुंदर जीवन-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य ये सभी ब्रह्मा द्वारा रची सृष्टि में हैं.
किंतु ब्रह्मा द्वारा रचित वेद-शास्त्रों ने ही उनके गुण-दोषों का बंटवारा करके उनकी प्रकृति निर्धारित कर दी है.
दोहा :
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है किन्तु संत तो हंस जैसे कुशल होते हैं. वे संसार के दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं.
चौपाई :
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
भावार्थ:-विधाता जब हंस के समान विवेक देते हैं, तब मन दोषों को छोड़कर गुणों की ओर प्रवृत होता है. फिर भी काल स्वभाव और कर्म कभी-कभी इतने प्रबल हो जाते हैं कि कई बार भले लोग भी माया के वश में होकर भलाई से चूक जाते हैं.
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥2॥
भावार्थ:- भगवान की भक्ति से उस भूल को सुधारने का ज्ञान मिलता है. दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल प्राप्त होता है. वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता.
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