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सारी सखियां, पार्वती, पर्वतराज हिमवान और मैना सभी के मन पुलकित थे और सबके नेत्रों में जल भरा था. देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते. यह विचारकर पार्वतीजी ने उनकी बातों को हृदय में धारण कर लिया.
पार्वतीजी सोच रही हैं कि ऐसा उत्तम सुहाग तो पुण्यकर्मों के प्रताप से मिलता है किंतु माता-पिता का हृदय तो पुत्री को ऐश्वर्य से परिपूर्ण देखने की लालसा रखता है. पार्वतीजी के मन में शिवजी के लिए अनुराग उत्पन्न हुआ है.
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
पार्वतीजी को शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया परन्तु मन में यह संदेह भी है कि शिवजी का मिलना तो कठिन है. अवसर ठीक न जानकर उमा ने मन में शिवजी के लिए प्रेम को छिपा लिया और फिर सखी के साथ ठिठोली करने लगीं.
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
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Very informative. Thanks.
आपके शुभ वचनों के लिए हृदय से कोटि-कोटि आभार.
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