इंद्र ने समझ लिया कि दधीचि का सामना करने उनके बस के बाहर की बात है और वह स्वर्ग लौट गए. दधीचि ने इंद्र को ऐसे बर्ताव पर भी कुछ नहीं कहा था.

श्रीहरि के आदेश पर अस्थियां मांगने दधीचि के पास गए. इंद्र ने दधीचि को सारी स्थिति बताई और सकुचाते हुए उनकी अस्थियां मांगी.

दधीचि ने कहा-देवराज हर जीव अपने जीवन से प्रेम करता है और मैं भी जीने की कामना रखता हूं. क्या देवराज को किसी के प्राण असमय मांगना शोभा देता है?

तब इंद्र ने विनम्रता से दधीचि को सबकुछ बताकर कहा कि वह श्रीहरि के आदेश से उनके पास आए हैं. दधीचि ने विश्वकल्याण के लिए शरीर त्यागने का निर्णय किया.

उन्होंने समाधि ले ली. देहांत के बाद उनकी अस्थियां लेकर इंद्र ने विश्वकर्मा को दिया. विश्वकर्मा ने दधीचि की हडिड्यों से फिर से वज्र बनाकर इंद्र को दिया.

नर्मदा नदी के किनारे भयंकर देवासुर संग्राम हुआ जिसमें एक ओर इंद्र थे तो दूसरी ओर वृटासुर. वृटासुर के साथ युद्ध में इंद्र परास्त होने लगे.

वृटासर द्वारा निगल लिए जाने पर इंद्र की रक्षा उसी नारायण कवच से हुई जो विश्वरूप से उन्हें दी थी. भागवत में वृटासुर-इंद्र युद्ध का प्रसंग बहुत सुंदर है. इस पर चर्चा अगले भाग में करेंगे.

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