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धर्मराज ने सुदर्शन से वरदान मांगने को कहा. सुदर्शन ने धर्मराज को तो पहले ही अपने आचरण से जीत लिया था. धर्म के साथ होने से उसके लिए संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं रह गया. उसने सोचा क्यों न मृत्यु पर भी विजय का वरदान मांग लूं ताकि अपनी इच्छा से जब तक धरती पर रहूं, इसे उत्तम रूप में भोगूं.

उसने मृत्यु को जीत लेने का वरदान मांगा. धर्मराज ने उसे वरदान दे दिया कि वह जब तक स्वयं नहीं चाहेगा तब तक उसे काल लेकर नहीं जाएंगे. अपनी इच्छा से ही दोनों मृत्युलोक को त्यागेंगे.

कथा सुनाकर ब्रह्मा ने कहा- हे मुनिवरों, तुमने अतिथि रूपी शिवजी का अपमान किया है. शिवजी जिसके सामने आकर बिना दर्शन दिए चले जाएं उससे ज्यादा अभागा कोई नहीं होता. यह तुम्हारे लिए दुर्भाग्य है. तुम सबने जो भी तप किया है वह निःस्वार्थ नहीं था. इसीलिए शिवजी ने परीक्षा ली थी. तुम्हारा सारा तपोफल व्यर्थ चला गया. अब तो उन्हीं शिवजी की शरण में जाओ.

भोले बहुत दयालु हैं, सबको क्षमा कर देंगे. यदि तुम पर शिवजी की कृपा हो गई तो तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं. श्वेत मुनि ने शिवभक्ति से अपनी मृत्यु तक को जीत लिया था. यदि तुम मुनिगण श्वेत मुनि की तरह धर्मनिष्ठ होकर शिवजी को प्रसन्न कर सके तभी तुम्हारे अभीष्ट पूरे होंगे.

ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर मुनियों को श्वेत मुनि की कथा सुनने की उत्सुकता हुई.

 

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