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शनिदेव ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली. उन्होंने कहा- जो मनुष्य मेरी कथा कहेगा या सुनेगा उसे मेरी दशा में कभी भी दुःख नहीं होगा. जो नित्य मेरा ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे. इतना कहकर शनिदेव अपने धाम को चले गए.

जब राजकुमारी मनभावनी की आँख खुली और उसने चौरंगिया को हाथ-पैरो के साथ देखा तो आश्चर्यचकित हो गयी. उसको देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपना सारा हाल कहा की मै उज्जयिनी का राजा विक्रमादित्य हूँ. यह सुनकर राजकुमारी बड़ी प्रसन्न हुई. जब सेठ ने यह घटना सुनी तो वह राजा विक्रमादित्य के पास आया और उनके पैरो पर गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया था. आप जो चाहे,मुझे दंड दे.

राजा ने कहा-मुझ पर शनिदेव का कोप था इसी कारण यह सब दुःख मुझे प्राप्त हुए, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है. सेठ ने कहा-“महाराज! मुझे तभी शांति मिलेगी, जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेंगे.” राजा विक्रमादित्य सेठ के घर भोजन कर रहे थे उस समय एक आश्चर्यजनक घटना घटती सबको दिखाई दी. जो खूंटी पहले हार निगल गयी थी वह अब हार उगल रही थी.

सेठ ने हाथ जोड़कर राजा से कहा-“मेरी श्रीकंवरी नामक एक कन्या है, आप उससे विवाह करें. ” विक्रमादित्य ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली. सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत-सा दान-दहेज़ आदि दिया. कुछ दिन तक उस राज्य में निवास करने के पश्चात राजा विक्रमादित्य उज्जैन के लिए चले.

राजकुमारी मनोभावनी, सेठ की कन्या तथा दोनों घरों से दहेज में मिले अनेक दास-दासी, रथ और पालकियों सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले. सारे उज्जयिनी में उत्सव मनाया गया और शनिदेव को दीप माला की गयी. दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सभी ग्रहों में सर्वोपरि हैं. मैंने इन्हें छोटा बतलाया, इसी से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ.

इस प्रकार सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा होने लगी. जो कोई शनिदेव की इस कथा को पढता या सुनता है, शनिदेव की कृपा से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं. व्रत के दिन शनिदेव की कथा को अवश्य पढ़ना चाहिए.

ऊं प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम: ऊं शं शनिश्चराय नम:

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम्

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