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राजा के पीठ पर बैठते ही घोडा तेजी से भागा. घोड़ा राजा को दूर एक घने जंगल में ले गया और वहां राजा को छोड़कर अंतर्ध्यान हो गया. इसके बाद राजा विक्रमादित्य अकेले जंगल में भटकते फिरते रहे. भूख-प्यास से दुखी राजा ने भटकते-भटकते एक ग्वाले को देखा. ग्वाले ने प्यासे राजा को पानी पिलाया. राजा की अंगुली में अंगूठी थी. राजा ने अंगूठी निकालकर ग्वाले को दे दी और स्वयं नगर की ओर चल दिए.

राजा नगर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गए. उन्होंने स्वयं को उज्जैन का रहने वाला कहा और अपना नाम विका बताया. सेठ ने उनको एक कुलीन मनुष्य समझ कर जलपान कराया. भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बहुत अधिक बिक्री हुई. सेठ विका को भाग्यवान पुरुष समझकर अपने घर ले गया. सेठ ने अपने गले का एक बेशकीमती हार खूंटी पर टांग दिया. भोजन करते समय राजा ने एक आश्चर्यजनक घटना देखी. सेठ ने जिस खूंटी पर अपना हार टांगा था, वह खूंटी उस हार को निगल रही थी.

भोजन के पश्चात जब सेठ उस कमरे में आया तो उसे कमरे में हार नहीं मिला. चूकि विका के अलावा कोई और अपरिचित वहां नहीं था इसलिए सेठ ने सोचा कि हार विका ने चुरा लिया है. परन्तु विका ने हार लेने से इनकार कर दिया. सेठ के आदेश पर पाँच-सात आदमी विका को पकड़कर नगर-कोतवाल के पास ले गए.

फौजदार ने उसे राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि यह आदमी भला प्रतीत होता है, चोर मालूम नहीं होता, परन्तु सेठ का कहना है कि इसके सिवा और कोई घर में आया ही नहीं, इसलिए अवश्य ही चोरी इसने की है. राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ-पैर काटकर चौरंगिया कर दिया जाए. तुरंत राजा की आज्ञा का पालन किया गया और विका के हाथ-पैर काट दिए गए.

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