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हारकर उन्होंने सावित्री से कहा कि वह स्वयं अपने योग्य वर तलाश लें. सावित्री पिता के आदेश पर वर की तलाश में निकली. घूमते-घूमते वह एक वन में जा पहुंची जहां उनकी भेंट साल्व देश के राजा द्युमत्सेन से हुई.

द्युमत्सेन के शत्रुओं ने उनका राज् छीन लिया था और वह परिवार समेत वन में रहने को विवश थे. वहां सावित्री ने उनके पुत्र सत्यवान को देखा और उन्हें पति के रूप में वरण किया.

देवर्षि नारद को जब यह बात पता चली कि सावित्री ने सत्यवान का वरण किया है तो वह राजा अश्वपति के पाए गए और उन्हें सावित्री का विवाह सत्यवान से न करने को आगाह किया.

नारद ने कहा- आपकी कन्या ने वर खोजने में भूल की है. सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है परन्तु वह अल्पायु है. उसकी आयु अब मात्र एक वर्ष ही शेष है.

नारदजी की बात सुनकर राजा पछताने लगे. उन्होंने सावित्री से कहा- वृथा न होहिं देवऋषि बानी.” देवर्षि की वाणी झूठी नहीं हो सकती. उन्होंने अपनी पुत्री को हर तरह से समझाया कि अल्पायु से विवाह करना उचित नहीं.

पर सावित्री तैयार नहीं थीं. उन्होंने पिता से कहा- आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है. अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही पतिरूप में स्वीकार कर चुकी हूं.

पुत्री की जिद के आगे पिता को झुकना पड़ा. दोनों का विधि विधान के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया गया और सावित्री अपने ससुराल में सास-ससुर की सेवा में रत हो गई.

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