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भरतजी के मुख से ये वचन निकले और मैं रामनाम का उच्चारण करता उठ बैठा. मैं नाम तो लेता हूं पर मेरा भरोसा भरतजी जैसा नहीं अन्यथा मैं संजीवनी लेने क्यों जाता! मैं भी भरतजी की तरह उस दृढ़ भक्ति की शक्ति से लक्ष्मणजी की मूर्च्छा मिटा सकता था.
हनुमानजी आगे बोले- दूसरी बात प्रभु! बाण लगते ही मैं गिरा वह पर्वत नहीं गिरा क्योंकि पर्वत तो आपने उठा रखा था. मैं तो इस अभिमान में था कि मैंने उठा रखा है. मेरा दूसरा अभिमान भी टूट गया.
एक बात और प्रभु! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरतजी के पास है. आपने सुबाहु मारीच को बाण मारकर दूर गिरा दिया. आपका बाण तो आपसे दूर कर देता है पर भरतजी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. उन्होंने मुझे बाण पर बिठाकर आपके पास भेज दिया.
श्रीराम मुस्कुराने लगे. उन्होंने हनुमानजी को समझाया- हनुमानजी, जब मैंने ताडका व अन्य राक्षसों को मारा तो वे सभी मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास तो आए.
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