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अर्जुन ने कहा- गुरुदेव पेट को भोजन की प्रतीक्षा थी. हाथों को मुख का रास्ता अच्छे से पता है. फिर प्रकाश हो या न हो, उससे क्या फर्क पड़ता है. भोजन को उसके लक्ष्य तक पहुंचाना ही है.

द्रोण ने कहा- यही शब्दबेधी बाण का मर्म है. लक्ष्य को देखकर उस पर तो कोई भी निशाना साध सकता है, असली धनुर्धर तो वह है जो लक्ष्य की कल्पना कर ले, संकेतों से उसकी आकृति मन में बना ले. वही शब्दबेधी बाण चला सकता है.

जो परिपक्व नहीं वह लक्ष्य की सही कल्पना में चूक करता है. चूक से चलाया गया बाण कभी लक्ष्य नहीं बेधता. लक्ष्य की सही पहचान आवश्यक है.

अर्जुन गुरुदेव का तात्पर्य समझ गए. सबसे पहले उन्होंने रात्रि में बाण चलाने का अभ्यास आरंभ किया. कई महीनों तक के सधे हुए प्रयास से अर्जुन ने अंधेरे में भी लक्ष्य को बेधने में सफलता पा ली, फिर गुरु ने उन्हें शब्दबेधी बाण चलाना सिखा दिया.

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