इसलिए हे राजन! तुम मत पछताओ कि तुम पूजा-पाठ नहीं करते. लोगों की सेवा करके तुम असल में भगवान की ही पूजा करते हो. परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं.

देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे.” अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे.’

भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है. सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. दीन-दुखियों का हित करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन सताए जा रहे हैं. इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा यही परम भक्ति है.

राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।

मित्रों, जो निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है. रामचरित मानस में कहा गया है-परहित सरिस धरम नहीं भाई. अर्थात दूसरों की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं.

संकलनः सारिका शर्मा
संपादनः प्रभु शरणम्

यदि आपके पास भी कोई प्रेरक या धार्मिक कथा है तो हमें भेजें. यदि कथा एप्प में पहले प्रकाशित नहीं हुई होगी और प्रकाशन योग्य होगी तो उसे जरूर स्थान मिलेगा. आप कथा askprabhusharnam@gmail.com पर मेल से या मुझे 9871507036 पर Whatsapp भी कर सकते हैं.

लेटेस्ट कथाओं के लिए प्रभु शरणम् मोबाइल ऐप्प डाउनलोड करें।
Android मोबाइल ऐप्प के लिए क्लिक करें
iOS मोबाइल ऐप्प के लिए क्लिक करें

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here