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याचक ब्राह्मण ने अपनी लकड़ी की मांग दोहराई. कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, पर वहां भी सूखी लकड़ी नहीं थी. ब्राह्मण निराश हो गया. अर्जुन-भीम भगवान की ओर देखने लगे. वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे.
कर्ण ने कहा- आप निराश न हों. एक उपाय है मेरे पास. उसने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट कर ढेर लगा दी. फिर ब्राह्मण से कहा- आपको जितनी लकड़ी चाहिए ले लीजिए. कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए एक सेवक भी साथ लगा दिया.
ब्राह्मण ने इस दान से खुश होकर कर्ण को आशीर्वाद दिया और लकड़ियां लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा. पांडव व श्रीकृष्ण भी अपने महल लौट आए. कर्ण द्वारा ब्राह्मण की प्राण रक्षा के लिए गए दान के इस उपाय से सभी प्रभावित थे.
भगवान ने कहा- सामान्य परिस्थिति में दान देना कोई बड़ी बात नहीं है. असामान्य हालात में किसी के लिए सबकुछ त्याग देने के लिए तत्पर रहने का ही नाम दान है. अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे पर आपको यह राह नहीं सूझी.
पांडव भगवान श्रीकृष्ण का तात्पर्य समझ चुके थे. फिर उन्होंने कभी महाराज युधिष्ठिर की दानशीलता की शेखी नहीं बघारी.
संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली
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