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छोटा भाई भी भूख से व्याकुल इधर उधर भटकता हुआ मर गया. इस पाप से मुझे यह प्रेत योनि मिली. अपने माता पिता को बन्दी बनाने और रोक कर रखने के कारण मेरा नाम रोधक पडा.
लेखक बोला- मैं उज्जैन का ब्राह्मण था. लोग मेरी प्रतिष्ठा मानते थे क्योंकि मैं वहां के प्रसिद्ध और संपन्न मन्दिर में पुजारी था. राजा भी कभी कभी उस मंदिर में पूजा को आते. उस मन्दिर में सोने की बनी और रत्न से जडी हुई बहुत सी मूर्तियां थीं.
उन रत्नों को देखकर मेरे मन में पाप आ गया और मैंने नुकीले लोहे से मूर्ति के नेत्रों से चमकते रत्न निकाल लिये. क्षत विक्षत और नेत्रहीन विरूपित मूर्ति बहुत ही विकृत दिखने लगी.
संयोग से अगली ही सुबह राजा उसी मंदिर में पूजा करने आ गया. मैं इस घटना से अनभिज्ञता जताते हुये वहीं पर था ही. आखिर मुझ पर किसी को कहां शंका होती. विकृत, विरूपित अंधी देव मूर्तियां देख धर्मालु राजा क्रोध से तमतमा उठा.
राजा ने वहीं अपनी अंजुली में जल उठाकर प्रतिज्ञा की कि जिसने भी चोरी की है वह श्रेष्ठ ब्राह्मण ही क्यों न हो, उसको प्राणदंड देगा. यह सुनकर मैं बुरी तरह डर गया. मैंने रात में चुपके से राजा के महल में जाकर तलवार से उसका सिर काट दिया.
चोरी के सामान के साथ मैंने उज्जैन छोड़ चल दिया. होने की किसे पता. कोई नहीं जानता उसकी मृत्यु कैसे होनी है. रास्ते में जंगल पड़ा. वहां बाघ ने मुझे मार डाला. नुकीले लोहे से प्रतिमा को छेदने और काटने का कार्य करने के कारण मैं नरक भोगने के बाद लेखक नामक प्रेत हुआ.
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