जीवन में उलझनों-परेशानियों की कोई कमी नहीं है. एक परेशाानी मिटती नहीं कि दूसरी मुंह बाए खड़ी हो जाती है. ऐसा है न! हम ईश्वर से मनाते रहते हैं कि कोई और परेशानी न आए.
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देखा जाए तो ज्यादातर परेशानियों का कारण हम स्वयं हो जाते हैं. सुकरात की एक बात गांठ बांध लेने की है. सुकरात जनजागरण का प्रयास कर रहे थे. अब लोगों की आंखों पर सैकड़ों सालों से पड़ी पट्टी हटाने का प्रयास करेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया होगी ही. परिवर्तन, खासकर सकारात्मक परिवर्तन इतना सहज तो होता नहीं.
सुकरात से घृणा करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी. उनका अपमान करना, उन पर हमला करना रोज की बात हो गई थी. जितना विरोध हो रहा था उतने लोग उनके साथ जुड़ भी रहे थे.
सुकरात के किसी प्रिय शिष्य ने पूछा- आप इतने विरोध को कैसे सह लेते हैं. इसका क्या राज है. मैं तो अधीर हो जाता हूं. आप एक मंत्र दीजिए मुझे.
वह बोले-अपने शत्रुओं की संख्या को लगातार कम करते जाओ, तुम दिन-ब-दिन खुश और मानसिक रूप से ताकतवर होते जाओगे. बहुत से लोगों को हम बेवजह अपना बैरी मानकर उनके प्रति सशंकित रहते हैं और इस तरह उनकी अच्छाइयों की अनदेखी और आलोचना का अवसर खोजते रहते हैं.
जलने वालों के प्रति क्यों न यह सोचना अनदेखा करना शुरू किया जाए कि यह तो मेरी शत्रुता के भी योग्य नहीं. इस पर तो दया ही की जा सकती है.
पहले आपको एक छोटी से प्रेरक कथा सुनाता हूं. फिर इस पर आगे बात करेंगे.
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एक किसान दो घड़ों को एक बड़ी सी लाठी के दोनों छोर पर बांधकर दूर एक नदी पर जाता और रोज वहां से पीने का पानी भर कर ले आता.
एक घड़ा कहीं से थोड़ा सा टूटा था जबकि दूसरा बिलकुल अच्छा. किसान दोनों घड़ों में पानी भरकर ले चलता लेकिन घर पहुंचते बस डेढ़ घड़ा पानी ही बच पाता था. ऐसा कई सालों से चल रहा था.
जो घड़ा फूटा नहीं था उसे इस बात का बड़ा घमंड था कि वह सर्वगुण संपन्न है. पूरा पानी घर तक पहुंचाता है. एक तरफ टूटा घड़ा है जो एक भी कायदे से पूरा नहीं कर पाता.
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वह टूटे घड़े की समय-समय पर हंसी भी उड़ा देता था. दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस बात से शर्मिंदा रहता था कि उसके कारण किसान की मेहनत बेकार चली जाती है.
फूटा घड़ा यह सोचकर काफी दुखी रहने लगा. एक दिन उसने मन की बात किसान से कहने की सोच ली.
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