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कुछ समय तक ऐसे ही वह पड़ा रहा. ईश्वर की लीला की प्रतीक्षा में. उसके भी दिन खुले. एक दिन उस पशुशाला में एक आदमी अपनी पत्नी के साथ आया. स्त्री ने वहां एक बच्चे को जन्म दिया. वे बच्चे को चारा खिलाने वाले कठौते में सुलाने लगे.
कठौता अब पालने के काम आने लगा. पहले वृक्ष ने स्वयं को धन्य माना कि अब वह संसार की सबसे मूल्यवान निधि अर्थात एक शिशु को आसरा दे रहा था. वह इस सौभाग्य पर भी गर्व कर रहा था.
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समय बीतता गया और सालों बाद कुछ नवयुवक दूसरे वृक्ष से बनाई गई नौका में बैठकर मछली पकड़ने के लिए गए. उसी समय बड़े जोरों का तूफान उठा. नौका तथा उसमें बैठे युवकों को लगा कि अब कोई भी जीवित नहीं बचेगा.
एक युवक नौका में निश्चिंत सा सो रहा था. उसके साथियों ने उसे जगाया और तूफान के बारे में बताया. वह युवक उठा और उसने नौका में खड़े होकर उफनते समुद्र और झंझावाती हवाओं से कहा- “शांत हो जाओ” और तूफान थम गया.
यह देखकर दूसरे वृक्ष को लगा कि उसने दुनिया के परम ऐश्वर्यशाली सम्राट को सागर पार कराया है. ईश्वर की लीला से वह संतुष्ट और प्रसन्न था.
तीसरे वृक्ष के पास भी एक दिन कुछ लोग आये. ईश्वर की लीला देखिए, उन्होंने उसके दो टुकड़ों को जोड़ा और एक घायल आदमी के ऊपर लाद दिया. उस घायल व्यक्ति को कहा गया कि इसे खींचकर लिए चले. ठोकर खाते, गिरते-पड़ते वह आदमी घिसटता जा रहा था. उस आदमी के दर्द का लोग आनंद लेते रहे. सड़क पर तमाशा देखती भीड़ उसका अपमान करती रही.
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