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भृगु ने ब्रह्मदेव से अशिष्टता कर दी. ब्रह्माजी का क्रोध बढ़ गया और अपना कमण्डल लेकर पुत्र को मारने भागे. भृगु किसी तरह वहां से जान बचाकर भाग चले आए. इसके बाद वह शिवजी के लोक कैलाश गए.
भृगु ने फिर से धृष्टता की. बिना कोई सूचना का शिष्टाचार दिखाए या शिवगणों से आज्ञा लिए सीधे वहां पहुंच गए जहां शिवजी माता पार्वती के साथ विश्राम कर रहे थे. आए तो आए, साथ ही अशिष्टता का आचरण भी किया.
शिवजी शांत रहे पर भृगु न समझे. शिवजी को क्रोध आया तो उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया. भृगु वहां से भागे. अंत में वह भगवान विष्णु के पास क्षीरसागर पहुंचे. श्रीहरि शेषशय्या पर लेटे निद्रा में थे और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थीं.
महर्षि भृगु दो स्थानों से अपमानित करके भगाए गए थे. उनका मन बहुत दुखी था. विष्णुजी को सोता देख उन्हें न जाने क्या हो गया और उन्होंने विष्णुजी को जगाने के लिए उनकी छाती पर एक लात जमा दी.
विष्णुजी जाग उठे और भृगु से बोले- मेरी छाती वज्र समान कठोर है. आपका शरीर तप के कारण दुर्बल. कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई. आपने मुझे सावधान करके कृपा की है. आपका चरणचिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा.
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