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आश्रम की रक्षा का भार सौंपकर उसने पास ही सरोवर के जल में जो डुबकी लगायी. जल के भीतर से ही वह राजकुमार के नगर में पहुँच गया. ऋतुध्वज का दिया सोने का हार तो साथ था ही.

नगर पहुंच कर उसने दैत्यों से युद्ध में राजकुमार की मृत्यु के झूठी खबर फैलाई, लोगों ने शंका की तो उसने राजकुमार ऋतुध्वज के गले का हार दिख कर सब को विश्वास दिला दिया.

अब तो ब्राह्मणों ने राजकुमार ऋतुध्वज का अग्नि-संस्कार कर दिया. उधर पति के मारे जाने का समाचार सुन मदालसा ने भी अपने प्राण त्याग दिए. तालकेतु का काम हो चुका था. वह पुन: राजकुमार के पास पहुंचा और धन्यवाद करके विदा कर दिया.

घर आने पर ऋतुध्वज को सरी बात पता चली. वह ब्राह्मण, अपना हार और फिर शेष बातों से समझ गया कि उसके साथ किस तरह का धोखा हुआ है कि उसके प्रिया मदालसा उससे छिन गयी. अत: मदालसा के विरह में वह शोकाकुल हो उठा.

ऋतुध्वज जब कम उम्र का था तब से ही उसकी मित्रता अश्वतर नागराज के दो पुत्रों से हो गई थी जो खेलने के लिए पाताल से निकलकर ऋतुध्वज के पास भूतल पर आते थे.

अब शोकाकुल राजकुमार ने सभी तरह के आमोद प्रमोद छोड़ एकांतवास किया करता था. राजकुमार के बिना रसातल में उसके मित्र अत्यंत व्याकुल रहते.

एक दिन नागराज ने उनसे पूछा कि वे दिन-भर कहाँ रहते थे? अब नहीं जाते तो दोनों ने ऋतुध्वज से अपनी मित्रता और मित्र के कष्ट के बारे में बताया.

नागराज ने उनकी मित्रता और ऋतुध्वज की वीरता से प्रभावित होकर पूछा कि वह उनके मित्र के लिए वे क्या कर सकते हैं.

पुत्रों के कहने पर ऋतुध्वज की सहायता की मंशा से नागराज ने तपस्या से माता सरस्वती को प्रसन्नकर अपने तथा अपने भाई कंबल के लिए संगीतशास्त्र की निपुणता का वर प्राप्त किया.

मां शारदे की कृपा से वे चमत्कृत कर देने वाले और मन मोह लेने वाली संगीत प्रतिभा से संपन्न हो गये. अब उन्होंने भगवान शिव का आह्वान किया. भगवान शिव उनकी साधना से प्रसन्न हुए.

शिव ने उन्हें जो वरदान दिया उसके प्रभाव से अश्वतर के मध्य फन से मदालसा का जन्म हुआ. नागराज अश्वतर के फन से मदालसा का यह पुनर्जन्म था.

नागराज ने मदालसा को गुप्त रुप से अपने रनिवास में छुपाकर रख दिया. उसके बाद नागराज ने अपने दोनों पुत्रों से ऋतुध्वज को अपने घर आमंत्रित करवाया.
ऋतुध्वज मित्र मंडली त्याग चुके थे इसलिए दोनों भाई ब्राह्मण का वेश धर उसके पास पहुंचे और अपने आश्रम चल, यज्ञ में सहायता करने को कहा. ऋतुध्वज मना न कर सके और चल पड़े. ब्राह्मण उन्हें लेकर पाताल चले.

ऋतुध्वज ने देखा कि दोनों ब्राह्मणवेशी मित्रों ने पाताल लोक पहुँचकर अपना बनावटी रूप त्याग दिया. उनका नाग रूप देख वह अत्यंत चकित हुआ. पाताल लोक में नागराज ने ऋतुध्वज का खूब सत्कार किया.

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