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ध्रुव के बड़े पुत्र उत्कल की राजकाज में रुचि न थी. इसलिए उनके छोटे भाई वत्सर को राजा बनाया गया. वत्सर ने अनेक वर्षों तक कुशलता से शासन किया.

उसी वंश में एक राजा हुए अंग. अंग की पत्नी सुनीता ने वेण को जन्म दिया. वेण स्वभाव से बड़ा क्रूर और अधर्मी था. राजा अंग ने उसे सुधारने के कई प्रयत्न किए लेकिन असफल रहे.

अंग के बाद वेण राजा बना तो और निरंकुश हो गया. वेण ने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया. उसने मुनियों को आदेश दिया कि वे यज्ञ में देवताओं के बदले वेण के नाम की आहुति डालें.

क्रोधित ऋषियों ने दंड देने के लिए यमराज का आह्वान किया और यमराज ने उसके प्राण हर लिए. वेण की माता सुनीता ने पुत्रमोह के कारण मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया.

रानी ने ऋषियों से कहा- राजा के न होने से राज्य पर अधर्मियों का कब्जा हो जाएगा. राजा की मृत्यु उनके कारण हुई है, इसलिए प्रजा को राजा देने की जिम्मेदारी भी ऋषियों की है.

ऋषियों ने रानी से वेण का शरीर मांगकर उसके शरीर को मथा. इससे पृथु पैदा हुए. पृथु भगवान श्रीविष्णु के अंश थे. ऋषियों ने पृथु का राज्याभिषेक किया.

वेण के राजा बनने से अधर्मियों का पृथ्वी पर बोलबाला हो गया था. इसलिए सहमी पृथ्वी ने अपने उदर में सारा अन्न, औषधि और बहुमूल्य रत्न छिपा लिया था.

पृथु जब राजा बने तब तक पृथ्वी अन्नहीन हो चुकी थी. प्रजा भूखी मर रही थी. प्रजा ने राजा से भोजन की व्यवस्था करने की प्रार्थना की.

पृथु को पता चला कि धरती बीज तो निगल लेती है किन्तु अन्न नहीं देती. क्रोध में पृथु ने धरती का नाश करने की ठानी और अपने धनुष पर दिव्य बाण चढ़ाए.

धरती डरकर गाय का रूप धरकर भागी. राजा ने उस गौ का पीछा किया. भयभीत धरती ने कहा- मैं स्त्री हूँ और अभी गौ रूप में हूं. इसलिए आप मुझे नष्ट न करें.

राजा ने कहा कि नाश से बचने का एक ही रास्ता है कि धरती प्रजा का अन्न-औषधि आदि लौटा दे. धरती ने कहा कि अधर्मियों से बचाने के लिए मैंने अपने उपहार छुपा लिए थे.

धरती ने बताया- आज मैं गौ रूप हूं. आप मेरे दुहे जाने और उचित बछड़े की व्यवस्था करें. मैं दुग्ध के रूप में वह सब दूँगी जो दुहने वालों की अभिलाषा होगी.

पृथु ने मनु को बछड़ा बनाकर स्वयं उसे दुहा. पृथ्वी को समतल करके प्रजा के लिए अन्न पौधे आदि पाए. धरती ने सबकी मनोकामना पूरी की.

प्रसन्न हो कर पृथु ने धरती को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकारा. पृथ्वी तब से ही पृथ्वी कहलाने लगीं. उससे पहले वह धरा या धरती थी.

महाराज पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया. जब 99 यज्ञ पूरे हुए तो इंद्र को भय हुआ कि कहीं सौंवे यज्ञ के बाद पृथु इंद्र की पदवी न प्राप्त कर लें.

यज्ञ रोकने के लिए इंद्र साधू का वेश धरकर यज्ञ का अश्व चुरा ले गए. अत्रि ऋषि ने इंद्र को भागते देख लिया. पृथु के पुत्र ने अश्व के चोर का पीछा करके पकड़ लिया.

लेकिन इंद्र ने साधू का वेश बनाया था इसलिए पृथु पुत्र ने उससे अश्व वापस नहीं छीना. अत्रि ने बताया कि वह साधू नहीं बल्कि इंद्र है तो वह उन्हें पकडने गया.

इंद्र भय से अश्व छोड़कर भाग गए. अश्व को लाकर घुड़साल में बांधा गया. इंद्र फिर से अश्व चुरा ले गए. पृथुपुत्र कई बार इंद्र से अश्व छीनकर लाया. इसलिए उसका नाम विजितश्व हुआ.

पृथु को इंद्र की करतूत का पता चला तो दंड देने के लिए उन्होंने अस्त्र उठा लिए. अत्रि ने समझाया कि अश्वमेध का व्रत लेने के कारण वह किसी का वध नहीं कर सकते.

अत्रि ने कहा कि इंद्र की करतूत का दंड देने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं. मंत्रों की शक्ति से वह इंद्र को यहां खींच लाएंगे और यज्ञ कुंड में भस्म कर देंगे.

इंद्र का आह्वान करके ऋत्विजों ने आहुति डाली तो ब्रह्मा प्रकट हुए. उन्होंने पृथु से कहा कि इंद्र आपकी ही तरह नारायण का अंश है. इसलिए उसका नाश करना उचित नहीं होगा.

भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को लेकर वहां प्रकट हुए. इंद्र को क्षमा करने को कहते हुए उन्होंने पृथु से वरदान मांगने को कहा. पृथु ने इंद्र को क्षमा कर दिया.

पृथु ने भगवान से कहा- आपके दर्शन के बाद कुछ भी सांसारिक वस्तु पाने की इच्छा नहीं. आप मुझे सहस्त्र कान दे दीजिए जिससे मैं आपकी स्तुति सुनता रहूं.

पृथु ने अपना राज्य पुत्र विजितश्व को सौंपा और पत्नी संग वन को चले गए. समय आने पर उन्होंने शरीर त्याग और उनके साथ ही उनकी पत्नी सती हो गईं.

विजितश्व ने लंबे समय तक राज किया. उनके वंश में ही राजा बर्हिषत हुए जिनका विवाह सागर की पुत्री शतद्रुति से हुआ.

शतद्रुति इतनी रूपवती थीं कि उनके रूप पर सभी देवता मोहित थे. विवाह के फेरों के समय तो स्वयं अग्निदेव भी उन पर मोहित हो गए थे.

बर्हिषत और शतद्रुति के दस पुत्र हुए जो प्रचेता कहलाये. पिता की आज्ञा से प्रचेता सागर के भीतर ही तप करने चले गए.

प्रचेताओं को भगवान शिव के दर्शन हुए. उनसे दीक्षा लेकर प्रचेताओं ने तप आरंभ किया. बर्हिषत एक के बाद एक यज्ञ करते जा रहे थे.

एक दिन नारद ने राजा को समझाया कि यज्ञ आदि करने के बाद भी आप कर्मबंधन से मुक्त होने की बजाय उसमें और बंधते जा रहे हैं. इससे मोक्ष प्राप्त नहीं होगा.

जिन पशुओं की तुम यज्ञों में बलि कर रहे हो वे सब प्रतिशोध के लिए इंतज़ार कर रहे हैं. नारदजी ने बर्हिषत को पुरंजन की कथा सुनाई जिससे उनकी आंखें खुलीं.

कल की भागवत में पढ़िए पुरंजन की कथा.

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