ब्रह्मा ने कहा- मेरी दृष्टि में त्वष्ठा के पुत्र विश्वरूप ही ऐसे हैं जो देवगुरू होने का सामर्थ्य रखते हैं. आप सब उनकी ही शरण में जाइए और उन्हें देवगुरू बनने को राजी करें.
ब्रह्मा ने साथ ही देवताओं को विश्वरूप के प्रति आगाह भी किया. विश्वरूप गुरू योग्य तो हैं किन्तु एक असुर होने के नाते उनका झुकाव असुरों के प्रति रहेगा. आपको यह सहन करना होगा.
इंद्र के नेतृत्व में देवगण विश्वरूप जी के पास गए. उनसे अपना गुरु बनने के लिए प्रार्थना की.
इंद्र ने कहा- उम्र में हमसे कम होते हुए भी आप ज्ञान में हमसे बहुत आगे हैं. हम आपसे देवगुरु बनने की विनती करते हैं. विश्वरूप ने इंद्र की विनती स्वीकार कर ली.
विश्वरूप ने इंद्र को नारायण कवच के रूप में ॐ नमो नारायणाय का मंत्र दिया. नारायण कवच से इंद्र युद्ध में सुरक्षित रहे और देवताओं ने फिर से विजयी होकर स्वर्ग प्राप्त कर लिया.
विश्वरूप के तीन सिर और तीन मुख थे. एक मुख से वह देवों के समान सोमरस पीते थे तो दूसरे से असुर समान मदिरा और तीसरे से मानव समान अन्न खाते थे.
विश्वरूप के जन्म असुर कन्या एवं आदित्य के पुत्र से हुआ था. इसलिए असुरों के प्रति उनका प्रेम भी स्वाभाविक था.
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