राजा ने सेवकों से कहा, राज्य में मुनादी करा दो. कोई काम न करे, नौकरी न करे. मेहनत और मजदूरी न करे और आशा का दीप न जलाए. आशा को आस जागेगी तो देखों कहां जाती है?”

सारा दिन बीता. आधी रात बीती. आशा को आस जगी. वह यहां गयी, वहां गयी लेकिन चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था. सिर्फ एक कुम्हार टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में काम कर रहा था. वह वहां जाकर टिक गई.

और राजा ने देखा कुम्हार ने जो दिए बनाए उसके सोने के हो जाने की आस की और वह सोने का हो गया. सोने के दिए में रुपये की बाती तथा कंचन का महल बन गया. जैसे उसकी आशाएं पूरी हुई वैसे सबकी हों.

कामनाओं के दीप बुझें तो अच्छा लेकिन आशा का दीपक कभी बुझने नहीं देना चाहिए. हालात कैसे भी हों, यही दीपक ऐसा है जो जीवन को प्रकाशित करने के लिए जूझने का हौसला देता है. फिर नींद, भूख, प्यास सब संगी हो जाते हैं.

संकलनः मनोज त्रिपाठी
संपादनः राजन प्रकाश

यह प्रेरक कथा बनारस से मनोज त्रिपाठी जी ने भेजी. आप भी धार्मिक और प्रेरक कथाएं भेज सकते हैं. चुनिंदा कथाएं प्रकाशित की जाएंगी. कथा टाइप करके मेल करें askprabhusharnam@gmail.com. यदि आपकी भेजी कथा पहले प्रकाशित हो चुकी होगी तो उसे फिर से स्थान नहीं मिलेगा.

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प्रभु शरणम्

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