क्या शिव-पार्वती ने भी की थी गणेश पूजा? शिव-पार्वती को क्यों करनी पड़ी गणेश पूजा? शिव-पार्वती गणेशजी की पूजा करें! आश्चर्य में न हों. गणेश पूजा की ये कथा महागणपति के प्रथम पूज्य बनने की कथा नहीं है. एक आनंददायक कथा है. पढ़िए आनंद होगा.
गणेश पूजा की जो कथा आपको सुनाने जा रहा हूं वह पूजा एकबार स्वयं महादेव ने पार्वतीजी को प्रसन्न करने के लिए किया था. यह गणेश पूजा की विधि महादेव को एक बालक ने बताई थी. वही बालक जिसका अस्तित्व शिव-पार्वती के कारण हुआ पर पार्वतीजी ने उसे शाप दे दिया.
जगदंबा के आदेश पर उस बालक ने की थी सबसे पहले गणेश पूजा. फिर उसने महादेव को सिखाया और महादेव ने पार्वतीजी को. तब पार्वतीजी ने एक मनोकामना पूर्ति के लिए की थी गणेश पूजा. बड़ी सुंदर रोचक और मनोरंजक कथा है यह गणेश पूजा की. गणेश पूजा से मनोकामना पूर्ति होती है इसका प्रमाण है यह कथा. पौष मास की गणेश चतुर्थी को यह कथा सुनी जरूर जाती है.
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एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती नर्मदा नदी के तट पर बैठे थे. देवी पार्वती ने समय व्यतीत करने के लिए भोलेनाथ से चौपड़ खेलने को कहा. महादेव तैयार तो हो गए. परन्तु वहां कोई और था नहीं. इसलिए समस्या यह थी कि इस खेल में हार-जीत का फैसला कौन करेगा?
भोलेनाथ ने कुछ तिनके उठाए. उसका पुतला बनाया और उस पुतले में प्राण प्रतिष्ठा कर दी. पुतला एक बालक के रूप में जीवित हो गया.
महादेव ने पुतले से कहा- पुत्र हम चौपड़ खेलना चाहते है. परन्तु हमारी हार-जीत का फैसला करने वाला कोई नहीं है. इसलिए तुम्हें हम निर्णायक बनाते हैं. तुम फैसला करना कि चौपड़ में कौन हारा और कौन जीता?
पुतले से बने पुत्र को साक्षी रखकर शिवजी और माता पार्वती ने चौपड़ खेलना शुरू किया. चौपड़ का खेल तीन बार खेला गया. संयोग से तीनों बार पार्वतीजी जीत गईं.
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खेल समाप्त होने पर बालक से देवी ने उसका निर्णय पूछा. उसने आश्चर्यजनक रूप से देवी पार्वती के स्थान पर महादेव को विजयी घोषित कर दिया. यह सुनते ही पार्वतीजी इतनी क्रोधित हो गईं कि क्रोध की सीमा न रही. वह क्रोध से तपने लगीं.
उन्होंने क्रोध में निर्णायक बने उस बालक से कहा- तुममें निर्णायक बनने की क्षमता नहीं है. तुम कुटिल हो. प्रपंच करने वाले हो. हार-जीत प्रत्यक्ष देखते हुए भी तुमने कुटिलता से गलत निर्णय सुनाया. तुम्हारा निर्णय अपूर्ण है इसलिए तुम अपूर्ण अंग वाले लंगड़े होकर कीचड़ में पड़े रहो.
माता से मिले इस शाप से वह बालक बिलखने लगा. उसने माता के चरण पकड़ लिए और रो-रोकर आंसुओं से उसे धो डाला.
बालक ने कहा- आप मेरी माता समान हैं. मैंने किसी द्वेष में ऐसा नहीं किया. आपने मुझे निर्णायक बना दिया. मैं तो आपके द्वारा अस्तित्व में लाया गया था. इसलिए आपका आदेश मानना मेरा दायित्व था. परंतु चौपड़ खेल के नियमों से तो मैं परिचित था. इसलिए मैं सही निर्णय नहीं कर पाया. माता मेरा आपके प्रति कोई विद्वेष नहीं है बल्कि अज्ञानतावश ऐसा निर्णय हुआ. अंजाने में हुई इस भूल के लिए मुझे ऐसा कड़ा दंड न दें. मुझे क्षमा कर दें. मैं तो आपके लिए पुत्रवत हूं. कोई माता अपने पुत्र को असहाय कीचड़ में पड़ा कैसे देख सकती है.
वह बालक ऐसी बातें करता बिलखता जाता. शिवजी शांत बैठे किसी बात की प्रतीक्षा कर रहे थे. वह अवसर भी आ गया.
बालक ने जब तर्कपूर्ण बात कही कि उसे चौपड़ के खेल के नियम नहीं बताए गए थे माता पार्वती को भी आभास हुआ. वह समझ गईं कि बालक ने जो किया वह अज्ञानता में किया. माता पसीज गईं.
शिवजी को इसी अवसर की प्रतीक्षा थी. वह बोले- देवी मैं इस बालक की बात से सहमत हूं. इसे अस्तित्व देने वाले तो हम दोनों ही हैं. हमारे अतिरिक्त यहां कोई तीसरा है नहीं. इसका मेरे प्रति कोई विशेष अनुराग और आपके प्रति कोई द्वेष हो इसका कोई कारण मुझे भी नहीं दिखता. क्रोध में आपसे एक अनर्थ हो गया है.
माता सहमत दिख रही थीं. उन्होंने बालक की शापमुक्ति का निदान सोचना शुरू किया.
पार्वतीजी बोलीं- सुनो बालक यहां गणेश पूजन के लिए नागकन्याएं आएंगी. उनसे पूजा की विधि समझकर तुम गणेश व्रत करो. ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे. इसी में तुम्हारे सारे कष्टों का अंत भी होगा और इसके बदले में तुम बहुत कुछ प्राप्त भी कर सकोगे.
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यह कहकर शिव-पार्वती कैलाश चले गए. बालक नागकन्याओं की प्रतीक्षा करता रहा. सालभर बाद नागकन्याएं गणेश पूजन के लिए आईं. बालक ने उन्हें माता पार्वती का संदेश दिया. फिर उनसे पूजन विधि ठीक से समझकर श्री गणेश का 21 दिन लगातार व्रत किया.
गणेशजी उसके व्रत-निष्ठा से प्रसन्न हो गए. महागणपति प्रकट हुए और उन्होंने बालक को वरदान मांगने को कहा.
बालक ने भगवान की स्तुति के बाद कहा- हे विनायक मुझमें इतनी शक्ति दीजिए कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं. मेरे माता-पिता मुझे चलकर आया देखकर प्रसन्न हों.
श्रीगणेश तो सब समझ रहे थे. वह बालक की चतुराई से और प्रसन्न हो गए. उन्होंने तथास्तु कहा और बालक को माता-पिता तक पहुंचा दिया.
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श्रीगणेश कृपा प्राप्तकर वह बालक कैलाश पर्वत पर पहुंच गया. अपने कैलाश पर्वत पर पहुंचने की कथा उसने भगवान भोलेनाथ को सुनाई. भोलेनाथ यह जानकर बड़े प्रसन्न हुए कि बालक का शरीर उत्तम हो गया है. वह कैलासवासी हो गया.
इसी बीच एक दिन किसी बात पर माता पार्वती, भोलेनाथ से रुष्ट हो गईं. भोलेनाथ और जगदंबा दोनों ही मानव समान लीला करने लगे. दोनों के बीच बातचीत तक बंद हो गई. कैलाश पर रह रहे उस बालक को भी बात पता चली.
बालक शिवजी के पास आया और उनसे बोला कि मैं आपको एक परामर्श देना चाहता हूं. आपकी दुविधा का इसी में निदान है.
भोलेपन से कही बालक की बात सुनकर भोलेनाथ जोर से हंस पड़े. उन्होंने बालक से कहा कि हां तत्काल वह उपाय बताओ जिससे मेरा कल्याण हो जाए.
बालक ने शिवजी से कहा- जैसे माता ने मुझसे कहा था कि गणेश पूजा करके तुम मेरा स्नेह प्राप्त करोगे. नाराज देवी को मनाने के लिए आप वह पूजन क्यों नहीं करते. मेरी मानिए तो आप भी महागणपति का पूजन करिए. सब काम बन जाएंगे.
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भक्त की बात पर भोलेनाथ पुनः मुस्कुराए. वह देवी को प्रसन्न करने के लिए बालक के मन में बसे गणेश आराधना के भाव को बनाए रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने बालक से गणेश पूजा की विधि समझी और व्रत किया.
पुत्र के प्रति इस स्नेह के भाव से पार्वतीजी खुश हो गईं. माता के मन से भगवान भोलेनाथ के लिए जो नाराजगी थी वह समाप्त हो गई. माता को समझ आ गया कि यह गणपति पूजन से समस्याओं का समाधान होता जा रहा है. यह तो अतिउत्तम बात है.
संयोग देखिए उसके कुछ समय बाद माता के बड़े पुत्र कार्तिकेयजी गजानन को प्रथम पूज्य बनाने से रूष्ट हो गए. नाराज होकर शिवपुत्र कार्तिकेय ने कैलास त्याग दिया और दक्षिण में जाकर निवास कर रहे थे.
देवी को पुत्र से मिलने की बड़ी इच्छा हुई. वह पुत्र से मिलने को बेचैन हो गईं. शिवजी ने युक्ति लगाई.
उन्होंने पार्वती से कहा- देवी पुत्र को प्राप्त करने के लिए तुम भी गणेश पूजा करो. देखो इस बालक की मंशा पूरी हुई. मेरी मंशा पूरी हुई. तुम्हारी भी होगी. इसलिए विधि समझकर महागणपति पूजन करो.
जगदंबा आदिशक्ति हैं. फिर भी उन्होंने परमदेव महा गणेश पूजा करने का निश्चय किया. (देवताओं के भक्तों में आपस में क्यों बैर और मारकाट मचती है आश्चर्य है जबकि देवताओं में कोई आपसी बैर नहीं.)
पुत्र से मिलन को व्याकुल माता ने गणपति आराधना करनी शुरू कर दी. कार्तिकेय को खबर लगी कि माता उनसे मिलने को इतनी बेचैन हैं. उनके अंदर माता के लिए अनुराग जागा. वह भागे-भागे कैलाश आए. माता की पुत्र से भेंट की मनोकामना पूरी हुई.
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उस दिन पौष मास की चतुर्थी थी. तभी से पौष की चतुर्थी की गणेश चतुर्थी को सभी मनोकामना पूरे करने वाले व्रत की तरह मनाया जाता है.
महागणपति परमदेव हैं. जैसे जगदंबा, महादेव, नारायण, सूर्य, ब्रह्मा आदि हैं वैसे ही महागणपति परमदेव हैं. पार्वतीनंदन या गौरीपुत्र के रूप में उनका एक अवतार है. यह लीला रहस्य समझने के लिए बहुत गंभीरता चाहिए क्योंकि हमारे मन में यही बैठ गया है कि गणेश का अर्थ शिव-पार्वती का पुत्र. ऐसा नहीं है.
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शिव-पार्वती विवाह में तो स्वयं ब्रह्मा ने पुरोहित बनकर गणेश पूजा विधिवत कराया था. यदि आप मनुष्य की दृष्टिमात्र से देखेंगे तो सोचिए कि विवाह के दिन कहां से अस्तित्व में आए गणेशजी. सोचिएगा. इस रहस्य को समझने एवं सनातन से जुड़े बहुत से रहस्यों को समझने की यदि दिल से लालसा हैं और सच्ची लालसा है तो आप तत्काल प्रभु शरणम् से जुड़ जाइए. धर्म के रहस्यों से सनातनियों को परिचित कराने के लिए ही तो बनाया गया है प्रभु शरणम्.
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