शिवपुराण की कथा ब्रह्माजी अपने पुत्र नारद को सुना रहे हैं. पिछली कथा से आगे,
इसके बाद मैं सरस्वती को साथ लेकर दक्ष के पास गया औऱ बताया कि महेश्वर सती से विवाह को सहमत हो गए हैं. दक्ष की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही. मैं शिवजी को भी जाकर सूचित कर दिया कि वधूपक्ष विवाह को सहर्ष तैयार है.
शिवजी ने बारात सजाई और चैत्र मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी, दिन रविवार को विवाह के लिए दक्ष के घर पहुंचे. मरीचि आदि ने मुझसे पौरौहित्य का अनुरोध किया. मैंने उसे स्वीकारते हुए पुरोहित बनकर विवाह कराया.
शिवजी अपनी पत्नी सती को लेकर बैल पर सवार होकर कैलास पर्वत को चल दिए. हे नारद! सती शिवजी की अर्धांगिनी बनकर अत्यंत प्रसन्न थीं. सती शिवजी के साथ ज्ञान के गूढ़ विषयों पर गहन चर्चा करती थीं.
शिवजी भी सती के पत्नीधर्म निभाने से बड़े प्रसन्न थे. उन्होंने सतीजी से प्रसन्न होकर एक दिन कुछ उपहार मांगने को कहा. सतीजी बोलीं- यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे वह ज्ञान दीजिए जिससे जीव बार-बार पृथ्वी पर आने बंधनों से मुक्ति मिल जाती है.
शिवजी ने बताना शुरू किया- देवी, ज्ञान और भक्ति दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हैं. विज्ञान परमतत्व है. उसके जागृत होने पर बुद्धि निर्मल हो जाती है फिर अह्मब्रह्मोस्मि यानी मैं ब्रह्म हूं का निश्चय दृढ़ हो जाता है.
भक्ति और ज्ञान में कोई विरोध नहीं. विज्ञान की माता मेरी भक्ति है जो भोग और मोक्ष दोनों की राह बताती है किंतु किसी को भक्ति की प्राप्ति तब तक नहीं होती जब तक मेरी कृपा न हो. भक्ति का विरोधी कभी ज्ञान प्राप्त ही नहीं कर सकता.
सतीजी ने पूछा- भक्ति का उत्तम मार्ग क्या है?
शिवजी ने कहा- सगुण और निर्गुण दोनों ही मार्ग उत्तम हैं. कुछ लोग निर्गुण भक्ति को चिंतन भी कहते हैं. भक्ति के नौ प्रमुख प्रकार कहे गए हैं.
1.श्रवण यानी सुनना- स्थिर आसन की मुद्रा में मेरा ध्यान करते, कथा कीर्तन को श्रद्धापूर्वक सुनते पुलकित होकर स्वयं को भूला देने की अवस्था में चले जाना.
2.कीर्तन- निर्मल मन से ऊंचे स्वर में मेरे दिव्यगुणों का महिमा अन्य को भी सुनाना.
3.स्मरण- अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए परेश्वर को सर्वव्यापी मान उसे मन से लगाए रखना
4.सेवन- निद्राभंग यानी जागने से निद्रामग्न यानी सोने तक मन और इन्द्रियों से अभाव पीड़ितों की नियमित सेवा. भूखे को भोजन, बीमारों की सेवा, प्यासे को जल देकर, तन-मन-धन से पूर्णतःसमर्पित होकर लोकसेवा.
5.दास्य- स्वयं को प्रभु का दास समझकर प्रभु को प्रिय आचरण करना. दासत्व में भाव होना चाहिए कि वह जो भी करेगा प्रभु का प्रिय करने के लिए करेगा.
6.अर्चन- षोडश उपचारों द्वारा प्रभु को पाद्य, अर्घ्य प्रसाद आदि का समर्पण
7.वंदन- चित्त को एकाग्र करके हृद.य से ध्यान और वाणी से गुणगान करते हुए आठों अंगों- मूर्धा(मस्तक), हनु(ठोढ़ी), वक्ष, उदर, दोनो भुजाएं और दोनों जंघाएं- को भूमि पर स्पर्श कराते हुए प्रणाम करना.
8.सख्य- ईश्वर द्वारा किए सभी अनुकूल या प्रतिकूल कार्यों को मंगलमय मानने का विश्वास. यदि कोई दुख मिला हो तो भी समझें कि उसके पीछे प्रभु की कोई हित की भावना छुपी होगी.
9.समर्पण- तन-मन-धन सर्वस्व प्रभु की प्रसन्नता के लिए समर्पित कर देना. लोकसेवा के किसी उद्देश्य को ईश्वर का कार्य मानकर उसके लिए तत्पर रहना. अपनी चिंता से मुक्त, दूसरों की चिंता में लगाना.
शिवजी बोले- देवी इन नौ प्रकारों में से किसी भी प्रकार को यदि मेरा भक्त साध ले तो मैं उसके वश में रहता हूं. मेरे भक्त का अनिष्ट करने की भावना रखने वाले को मैं स्वयं अपना शत्रु समझता हूं.
शिव और सती के बीच चले इस ज्ञानचर्चा को ब्रह्माजी के मुख से सुनकर नारद प्रसन्न थे. पर तभी उन्होंने एक टेढ़ा प्रश्न किया- पति-पत्नी में इतना प्रेम था तो फिर शिवजी ने सतीजी का त्याग क्यों कर दिया, वह जानने को उत्सुक हूं. नारद इसके पीछे एक कथा है. वह सुनाता हूं.
(शिव पुराण रूद्र संहिता, सती खंड-2) क्रमशः जारी ….
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश