संसार में हर वस्तु की अपनी उपयोगिता है, उसका अपना स्थान है. एकाध असफलता से उसके पूरे जीवन की कुंडली नहीं बना देनी चाहिए. जीवन है क्या, संघर्ष, खेल या उत्सव? इस छोटे से प्रश्न के उत्तर को थोड़ा सा भी समझने का प्रयास करें तो जीवन जीने की एक बिलकुल नई कला सीख जाएंगे.

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कहते हैं मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है. उसे विधाता ने इतना कुछ सौंप दिया है कि वह अपने कर्मों से देवता भी हो सकता है यदि वह इस अनुपम भेंट का सही मोल समझ ले. सहज जो प्राप्त हो जाए उसका मनुष्य सही मोल नहीं समझता. चंद इम्तिहान से किसी का पूरा आंकलन हो ही नहीं सकता.

एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु पूछा- गुरु जी कुछ लोग कहते हैं, जीवन एक संघर्ष है. कुछ अन्य कहते हैं जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव बताते हैं. इनमें कौन सही है?

गुरु ने उत्तर दिया- जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं.

शिष्य इस उत्तर से पूरी तरह संतुष्ट न था. उसने सोचा यह क्या बात हुई. गुरू ने तो बस यही सिद्ध कर दिया कि गुरू होना ही श्रेष्ठ है. हालांकि चेला कुछ बोला तो नहीं पर गुरु को आभास हो गया.

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गुरू ने भाव पढ़कर कहा- तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूं. ध्यान से सुनो, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसमें ही है.

एक बार की बात है. एक आश्रम में रहने वाले तीन शिष्यों ने अध्ययन पूरा करने के बाद अपने गुरुजी से विनती की कि वह गुरुदाक्षिणा के बारे में बताएं. तीनों ने गुरूजी से गुरूदक्षिणा बताने की विनती की.

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गुरु मुस्कराये और फिर स्नेहपूर्वक बोले- मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए,ला सकोगे?

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