पराशर मुनि और सत्यवती के पुत्र व्यासजी त्रिकालदर्शी थे. उन्होंने ध्यान लगाकर संसार के प्राणियों के मन में झांका तो मानव हृद्य शोक औऱ विषाद से भऱा नजर आया.
लोगों के हृद्य में नास्तिकता का वास हो रहा था. वे किसी न किसी अभाव से ग्रस्त हो रहे थे. अपना हित साधने के लिए उचित-अनुचित का अंतर नहीं कर रहे थे.
व्यासजी का मन इससे व्यथित हुआ. उन्होंने भाग्यहीन होते जा रहे मानवों के भाग्य की वृद्धि के लिए यज्ञ संस्कारों को सरल बनाकर वेदों को चार भागों में बांटा.
पांचवें वेद के रूप में उन्होंने पुराण की रचना की. जिसके खंड होते चले गए. लेकिन व्यासजी के मन की चिंता फिर भी पूरी तरह दूर नहीं हुई.
सरस्वती नदी के किनारे बैठकर व्यासजी इसी विचार में खोए थे कि वहां ब्रह्मर्षि नारदजी की आगमन हुआ. नारदजी ने व्यासजी की चिंता का कारण पूछा.
व्यासजी ने नारदजी को कहा- ऋषिवर कलि के प्रभाव से मानव के मन में जो दुख पैदा होगा, उससे रक्षा के लिए मैंने ज्ञान को चार वेदों में डालकर मानव के समक्ष रखा.
वेद पाठ में सभी समर्थ नहीं होंगे यह समझते हुए वेदों के ज्ञान को सरल रूप में उपनिषदों में दिया. जीवन के कर्मों के लक्षण और फल दर्शाता महाभारत लिखा.
फिर भी मुझे लगता है कि मानव कल्याण के निमित्त मैंने जो रचनाएं कीं, वह अभी अपूर्ण है. देवर्षि, मेरा मार्गदर्शन करें कि मेरी रचना में कहां कमी रह गई?
नारदजी ने कहा- आपकी रचनाएं अद्भुत, सराहनीय और संग्रहणीय हैं. फिर भी आपको ऐसी अनुभूति इसलिए होती है क्योंकि आपका उद्देश्य अभी भी अधूरा ही है.
व्यासजी की प्रार्थना पर नारदजी ने बताया- आपने श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना कर दी किंतु उसमें भक्तिरस का संचार नहीं किया. इस ज्ञानभंडार में श्रीकृष्ण की भक्ति मिला कर देखें सारी चिंता दूर हो जाएगी.
वेद व्यासजी ने पूछा- देवर्षि आप समस्त संसार में नारायण नाम का स्मरण करते घूमते रहते हैं इसका क्या कारण है. विश्व के कल्याण के लिए यह मुझे बताइए.
नारदजी ने कहा- इसे समझने के लिए मेरे पूर्वजन्म की कथा जाननी पड़ेगी. व्यासजी चकित स्वर में बोले- आप तो ब्रह्मा की संतान हैं. भला आपका पूर्वजन्म कैसे हुआ?
नारदजी ने मुस्कुराए. उन्होंने व्यासजी से कहा- इस सृष्टि से पूर्व भी सृष्टि थी. मैं आपको अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाता हूं.
पूर्वजन्म में मैं एक दरिद्र माता का इकलौता पुत्र था. मेरी माता ऋषियों के आश्रम में सेविका का काम करती थीं.
चातुर्मास के समय जब वैष्णव भक्त आश्रम में आते थे तब मैं भी उनकी सेवा में लग जाता था.पूरी तन्मयता से भक्तों की सेवा करता था. इससे वे मुझसे प्रसन्न रहते थे.
उन वैष्णव भक्तों को मुझसे बहुत स्नेह हो गया. उनकी भक्ति कथाएं सुनते-सुनते मेरे मन में भी श्रीविष्णुजी के प्रति अनंत भक्ति पैदा हो गई थी.
मैं भी प्रभु की कथाएं गाकर लोगों को सुनाया करता था. चतुर्मास के बाद ब्राह्मण जाने लगे तो मुझे बड़ी वेदना हुई.
मुझे लगा कि कहीं मैं श्रीकृष्ण भक्ति से अलग न हो जाऊं. उन ब्राह्मणों ने मुझे साथ ले जाना चाहा लेकिन माता की कल्पना आने के कारण मैं जा नहीं सका.
उनके जाने के बाद मैं प्रभु वियोग की कल्पना से सिहर उठा और रोने लगा. इसी बीच मेरी माता के पांव एक सर्प पर पड़ गए. सर्पदंश से उनकी मृत्यु हो गई.
माता से बिछोह के बाद मैं विचलित होकर वन की ओर निकल गया. भटकता हुआ मैं हरिनाम का स्मरण करता था. अंततः प्रभु की प्रेरणा हुई और मैं एक वन में ठहरा.
वहां मुझे ज्ञान हुआ कि हमें जीवन प्रभु सेवा के लिए मिला है. प्रभुनाम के अतिरिक्त हर चीज मेरी माता की तरह नश्वर है. मैंने स्वयं को प्रभुभक्ति में समर्पित कर दिया.
वह जीवन मैंने भक्तिमय होकर गुज़ारा और क्षीर सागर की तरफ आया. प्रलय के समय में मैं प्रभु नाम का स्मरण करता ब्रह्मदेव में लीन हो गया.
सहस्त्र चतुर्युगी के बाद जब ब्रह्मदेव ने नई सृष्टि की रचना आरंभ की तो मैं भी मरीचि आदि ऋषियों के साथ उनके मानसपुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ.
मुझे प्रभु कृपा से पूर्वजन्म का स्मरण था. इसलिए मैंने अपने इस जन्म में कोई भी समय व्यर्थ न करते हुए हरिनाम का गुणगान आरंभ कर दिया. समस्त लोकों में नारायण नाम लेता फिरता हूं.
नारदजी ने वेदव्यासजी को कहा कि वह श्रीहरि की भक्ति से ओत-प्रोत एक महापुराण की रचना करें इससे उनके मन को शांति मिलेगी और जनकल्याण होगा.
नारदजी की प्रेरणा से वेदव्यासजी ने श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना आरंभ की. जीवन के सभी कष्टों के निवारण का रहस्य बताने वाले इस ग्रंथ के पाठ से मानव का कल्याण होता है.