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सत्यव्रत ने मछली को प्रणाम कर अनुरोध किया- हे परमात्मा, आप प्रकट होकर मुझे दर्शन दें और कृतार्थ करें.
मत्स्य रूप त्यागकर श्रीहरि प्रकट हुए और बोले- प्रजापति सत्यव्रत मैंने आपको एक विशेष कार्य के लिए चुना है. मछली का रूप धरकर मैं तो आपकी दयालुता की परीक्षा ले रहा था.
सत्यव्रत तो कृतकृत्य हो गए. उन्होंने हर प्रकार से श्रीहरि की स्तुति और पूजा की उसके बाद शीश झुकाकर बोले- हे प्रभु आप आदेश करें. संकट में घिरी प्रजा की रक्षा के लिए मैं किस प्रकार सहयोगी हो सकता हूं.
श्रीहरि बोले- आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में घिर जाएगी. प्रलयंकारी मेघ पूरे वेग से वर्षा करेंगे. पृथ्वी का रहा स्थान भी जो अभी तक जल में नहीं डूबा है वह भी जल में डूब सकता है. आपके पास एक विशाल नौका पहुँचेगी.
आप पृथ्वी के सभी दुर्लभ अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ उस नौका पर बैठ जाइएगा. नागराज वासुकी इस नाव को मछली के साथ बांध देंगे. वह ही नौका कुछ समय के लिए उन दुर्लभ बीजों का आश्रयस्थल रहेगी.
जब देवकार्य पूर्ण हो जाएगा तो आपको स्वतः पता चल जाएगा कि इसके आगे क्या कार्य करना है. आप इन सात दिनों में समस्त अनाजों और औषधियों के बीजों को इकत्रित कर लें.
इतना कहकर भगवान वहां से अंतर्धान हो गए.
सत्यव्रत ने श्रीहरि के आदेशानुसार कार्य किया. सातवें दिन प्रभु ने दर्शन दिए. सत्यव्रत सप्तर्षियों के साथ श्रीहरि के बताए अनुसार बीजों, औषधियों को लेकर नौका में सवार हो गए.
वासुकि रस्सी की भांति नौका को मत्स्य रूपी भगवान के साथ लपेटकर साथ चलते रहे. भगवान उन्हें लेकर सुमेरू पर्वत की ओर चले.
रास्ते में सत्यव्रत ने भगवान से कहा- हे नाथ! मेरे लिए यह दुर्लभ अवसर है. संसार में किसी को ऐसा अवसर अब तक प्राप्त नहीं हुआ है. आपके दर्शन के बादकुछ और प्राप्त करने की न तो आवश्यकता रह जाती है और न लालसा. हे प्रभु! इस मार्ग और यात्रा और उत्तम व उपयोगी बनाने के लिए मुझे ज्ञान प्रदान करें.
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