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इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम का जीवन चरित, उनकी लीला. और महिमा का उल्लेख करते हुए उन्हें पत्थरों पर ही उकेर कर एक महान और विस्तृत ग्रंथ की रचना कर दी. हनुमान जी ने अपनी इस रचना को न तो किसी को दिखाया था न ही उसे कोई नाम दिया था.

कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि शिव धाम कैलाश पर्वत पहुंचे. वाल्मीकि ने रामकथा पर आधारित ‘वाल्मीकि रामायण’ लिखी थी. उनकी इच्छा अपनी लिखी रामायण को भगवान शंकर को दिखाकर उन्हीं को समर्पित करने की थी. वहां उन्होंने हनुमानजी को देखा और कुशल क्षेम पूछी.

हनुमान जी की रचना तो वहीं पत्थरों पर ही खुदी थी सो वह वाल्मीकि जी की नजर में आ गयी. वालमीकि जी ने उसे देखा और पढा. रामभक्त हनुमान की लिखी इस रामकथा को उन्होंने नाम दिया, हनुमद रामयण. ‘हनुमद रामायण’ के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराशा में डूब गये.

वाल्मीकिजी को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा. वाल्मीकि बोले, मैंने बड़े ही कठिन साधना के बाद एक रामायण लिखी है जिसे दिखाने भगवान शंकर के पासा आया हूं. पर इस बात में कोई शक नहीं कि पत्थरों पर यह रामायण आपने पहले ही लिख दी है.

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