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कोमल पुष्पों के पर लोटता हुआ मनभावन सुगन्ध का आनंद लेते, जगह-जगह रखे मीठे दूध को पीता आगे बढ़ता गया. अब उसके मन में क्रोध के स्थान पर सन्तोष और प्रसन्नता के भाव उमड़ने लगे.
जैसे-जैसे वह आगे चलता गया, वैसे-वैसे उसका क्रोध कम होता गया. राजमहल में जब वह प्रवेश करने लगा तो देखा कि प्रहरी और द्वारपाल सशस्त्र खड़े हैं परन्तु कोई उसे जरा भी हानि पहुंचाने की चेष्टा नहीं करते.
यह असाधारण सौजन्य देखकर सर्प के मन में स्नेह उमड़ आया. सद्व्यवहार, नम्रता, मधुरता के जादू ने उसे मन्त्र- मुग्ध कर लिया था. कहां वह राजा को काटने चला था परन्तु अब उसके लिए अपना कार्य असंभव हो गया.
हानि पहुंचाने के लिए आने वाले शत्रु के साथ जिसका ऐसा मधुर व्यवहार है, उस धर्मात्मा राजा को काटूं तो किस प्रकार काटूं? यह प्रश्न उसे बेचैन करने लगा. राजा के पलंग तक जाने तक सर्प का निश्चय पूर्ण रूप से बदल गया.
राजा सर्प के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था. रास्ते भर की सेवा का आनंद लेते और राजा के प्रति विचार में पड़े होने के कारण सर्प को महात्माजी द्वारा बताए समय से पहुंचने में कुछ विलम्ब हो गया.
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