[sc:fb]

हिरण्यकश्यपु के सेवकों ने कहा- इस तप का कोई अर्थ नहीं है स्वामी क्योंकि तप तो उनके लिए है जिनकी कोई आकांक्षा पूर्ण न हुई हो. आपके आगे तो सभी नतमस्तक हैं. अपने कुल के सेवकों के कल्याण के लिए तप का त्याग कर दें.

हिरण्यकश्यप में अहंकार बहुत था. उसने तो हठ कर ही लिया था कि वह स्वयं देवताओं के रूप में समस्त हविष आदि भी ग्रहण करेगा. उसने किसी की न मानी.

अपने बंधु बांधवों की बात ठुकराकर दो-तीन घनिष्ठ मित्रों को अपनी सुरक्षा मैं तैनात कर उसने तप जारी रखा. तप के लिए उसने ना स्थान चुना कैलास पर्वत.

वह कैलाश के शिखर पर पहुंचा और अपनी घोर तपस्या आरंभ कर दी. तप के कुछ ही बरस बीते होंगे कि स्वयं ब्रह्माजी भी अत्यंत चिंतित हो उठे.

उन्होंने सोचा कि यह दैत्य यदि इसी तरह दुष्कर तपस्या करता रहा तो सभी देवता इसके अधीन हो जाएंगे. फिर यह दुर्बुद्धि उन सबकी शक्तियों का नाजायज प्रयोग करेगा.

अपनी बनाई सृष्टि की व्यवस्था पर ब्रह्माजी को संकट घिरता दिख रहा था.

उन्हें चिंता हुई कि कैसे हिरण्यकश्यपु को इस कठिन तप से अलग किया जाए. वह इसी चिंता में व्याकुल थे तभी उन्हीं देवर्षि नारद दिखे.

शेष अगले पेज पर. नीचे पेज नंबर पर क्लिक करें.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here