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भगवान बोले- जहां भी कोई मेरी सहायता के लिए सच्चे मन से पुकारता है मैं वहां किसी न किसी रूप में अवश्य आता हूं। कोई बड़ा निमित्त बनाता हूं। वह व्यक्ति मेरा भक्त है, आपकी प्रजा है। यहां असंख्य लोग भोजन ग्रहण कर रहे थे। आवश्यकता से अधिक खा रहे थे, दान ले रहे थे किंतु वह भूखा था।
मैं संतुष्ट कैसे होता! उस व्यक्ति को भोजन कराकर आपने मुझे भोग लगाया है। इसी कारण आकाश घंटियां बज उठीं।
छोटी सी कथा है पर इसे बहुत ध्यान से समझने की जरूरत है। हम सैंकड़ों हजारों रूपए उनकी प्रसन्नता के लिए सहर्ष खर्च देते हैं जो पहले से खाए-अघाए हैं। जिन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं। वह उसे खाकर भी मीनमेख निकाल देते हैं।
वहीं सामने ऐसे लोग उनके फेंके हुए को लपककर भेट भरने की आस लगाए देखते रहते हैं। भगवान को तो प्रसन्नता तब होती है जब आप उसकी सेवा कर रहे होते हैं जो अपने कर्मों का दंड भोग रहा होता है।
ईश्वर किसी को दंडित नहीं करना चाहते। जो दंड भोग रहा होता है उसकी आत्मा के साथ ईश्वर भी दुखी रहते हैं लेकिन एक व्यवस्था बनी है जिसे वह खंडित नहीं कर सकते।
ऐसे में उन्हें तब बड़ी प्रसन्नता होती है जब हम ईश्वर के स्थान पर उस परेशानहाल की सहायता करते हैं। सच पूछें तो यही सच्ची पूजा, सच्चा यज्ञ, पूर्ण व्रत है।
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