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वह भी उस लाइन में लग गया और उसके दर्शन का भी समय आया. उसने पास से देखा कि उसकी बनाई मूर्ति का कितना सत्कार हो रहा है, उसका भव्य शृंगार किया गया है. भेंटें अर्पित की गई हैं. सभी शीश नवा रहे हैं.

जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक मंदिर में एक ओर पड़ा था.

लोग उसके सिर पर नारियल फोड़कर मूर्ति पर चढ़ा रहे थे.

शिल्पकार ने मन ही मन सोचा- जीवन में कुछ बन पाने के लिए यदि शुरू में अपने जीवन के शिल्पकार (माता-पिता, शिक्षक, गुरु आदि) को पहचानकर, उनका सत्कार कर, कुछ कष्ट झेल लेने से व्यक्ति का जीवन बन जाता है और बाद में सारा संसार उसका सत्कार करता है.

परंतु जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता.

कथा काल्पनिक हो सकती है पर इसका सन्देश है एकदम चमकते हीरे जैसा. यह हम पर है कि हम उस हीरे की चमक में अपनी आँखें चौंधिया लें या हीरे की शीतलता को महसूस करें.

जो कष्ट जीवन में आ रहे हैं वे संभव है कि क्षणिक हों या फिर कुछ लंबे समय तक जीवन में जारी रह जाएं पर वहां धैर्य की आवश्यकता होती है जैसे उस पत्थर ने रखा जिससे तराशकर मूर्ति बनी.

यदि हम शुरू में ही घबराकर पीछे हट जायेंगे तो हम तराशे जाने से वंचित रह जायेंगे.

जो पत्थर तराशने की पीड़ा सह जाता है उसके सामने सभी शीश झुकाते हैं, जो उन आरम्भिक कष्टों से घबराकर पीछे हट जाते हैं उनपर तो नारियल ही फोड़े जाते हैं.

प्रभु पर विश्वास रखें और अपने प्रयास ज़ारी रखें. जब कभी हिम्मत डगमगाने लगे तो प्रभु शरणम् है न आपके मार्गदर्शन के लिए, आपके उत्साहवर्धन के लिए. आध्यात्म और धर्म का वास्तव में यही कार्य है.

हमें ईश्वर को कोसना नहीं चाहिए बल्कि आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या ईश्वर किसी बहाने, किसी रूप में आकर चेता रहे थे पर हमने अनसुना कर दिया.

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