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जो बात कहने जा रहा हूं वह बात बहुत गहरी है. उसके माध्यम से ईश्वर की उस लीला की चर्चा करेंगे जिसे आप क्रूरता का नाम भी दे देते हैं.

इसी कथा के माध्यम से सनातन धर्म की कुछ परंपराओं पर भी बात करेंगे. लॉजिक के साथ समझने की कोशिश करेंगे परंपराओं के बारे में..

पहले कथा को आराम-आराम से पढ़ें. जो बात कहनी है वह इसके बाद होगी.

एक थका-मांदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठ गया.

अचानक उसे सामने पत्थर का एक सुन्दर टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया. पत्थर चमकीला और आकर्षक था.

शिल्पकार उस पत्थर की सुंदरता देखकर इतना प्रभावित हुआ कि सारी थकान ग़ायब हो गयी. उसने सोचा कि इस सुंदर पत्थर से तो अपनी आराध्य देवी की सुन्दर प्रतिमा बनाऊंगा.

यह सोचकर उसने उस पत्थर के टुकड़े को उठा लिया.

थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा- मुझे मत मारो.

शिल्पकार एक पल को ठिठका. उसने कुछ विचारा और फिर दूसरे वार के लिए हथौड़ा उठाया तो वह वह पत्थर रोने-गिड़गिड़ाने लगा- मत मारो मुझे, मत मारो, मत मारो.

शिल्पकार मुस्कुराया और उसने उस पत्थर को छोड़ दिया. उसने पास ही पड़ा एक एक अन्य पत्थर का टुकड़ा उठाया, उसे परखा और फिर हथौड़ी से तराशने लगा.

पत्थर के यह टुकड़ा रोया-चिल्लाया नहीं, चुपचाप छेनी-हथौड़ी के वार सहता गया. देखते ही देखते शिल्पकार के जादू से उस पत्थर के टुकड़े में से देवी की एक प्रतिमा उभर आई.

उस प्रतिमा को वहीं पेड़ के नीचे रखकर शिल्पकार अपनी राह पकड़ आगे चला गया.

कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहां पिछली बार विश्राम किया था.

उस स्थान पर पहुंचा तो देखा कि जो मूर्ति उसने बनाई थी उसकी तो बड़ी श्रद्धा से पूजा-अर्चना हो रही है. भीड़ है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की लाइऩ लगी है.

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