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शिकारी ने कहा- मैं मनुष्य की बोली में बात करती हिरणी को पहली बार देख रहा हूं. अवश्य ही तुम कोई असाधारण जीव हो. मैं व्याघ्र हूं. मुझे परिवार को पालने के लिए शिकार के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं पता. इसलिए मैं तुम्हें मारकर अपना और अपने परिवार का पेट भरूंगा.

हिरणी ने कहा- मैं स्वर्ग की अप्सरा हूं जो शापित होने के कारण हिरणी बन गई हूं. मैं अभी प्रसूता हूं. शीघ्र ही बच्चे को जन्म देने वाली हूं. मुझे मारकर तुम एक साथ दो प्राणियों की हत्या कर दोगे जो उचित नहीं. अपने बच्चे को जन्म देकर मैं तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाउंगी.

आज तुम किसी और शिकार से पेट भर लो. अभी यहां पर एक और हिरणी आएगी जो हृष्ट-पुष्ट है तुम उसका शिकार करके आज अपने परिवार का पेट पालो.

शिकारी ने कहा- मैं तुम्हारी बात का भरोसा कैसे करूं.

इस प्रश्न के उत्तर में हिरणी बनी अप्सरा ने शिकारी को उपदेश देकर संतुष्ट किया तो शिकारी ने उसे जाने दिया.

थोड़ी देर बाद रात्रि के दूसरे प्रहर में उस हिरनी की बहन उसे खोजते हुए झील के पास आ गई. शिकारी ने उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर तीर चढ़ाया.

हिरणी ने कहा- शिकारी मुझे मत मारो. मैं तो पहले से भी भूखी-प्यासी होने के कारण कमजोर हूं. मेरे शरीर में उतना मांस नहीं जिससे तुम्हारे पूरे परिवार का भोजन हो सके.

फिर भी तुम यदि चाहते हो तो मैं तुम्हारा शिकार बनने के लिए तैयार हूं. मुझे आज की मोहलत दे दो ताकि मैं अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़कर आ जाउं.

हिरणी ने शिकारी को कहा कि यदि वह अपना वचन रखने के लिए लौटकर नहीं आती तो वह उस पाप की भागी हो जो युद्ध को छोड़कर भाग आए किसी महारथी की होती है.

शिकारी ने उसे जाने दिया और निराशा में बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा. उसके साथ जल भी गिराया.

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