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महालक्ष्मी ने उत्तम स्थान का निश्चय करके मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारम्भ कर दी. उनकी तपस्या कठोरतम होती जा रही थी.

हे परमेश्वरी कुछ समय बाद महालक्ष्मी जी ने मेरे लिंग विग्रह से थोड़ा उर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया. अपने पत्तों और पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं.

इस तरह महालक्ष्मी ने कोटि वर्ष ( एक करोड़ वर्ष) तक घोर आराधना की. अंततः उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ.

मैं वहां प्रकट हुआ और देवी से इस घोर तप की आकांक्षा पूछकर वरदान देने को तैयार हुआ.

महालक्ष्मी ने मांगा कि श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है वह समाप्त हो जाए.

शिवजी बोले- मैंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है. वाग्देवी के प्रति उनका प्रेम नहीं अपितु श्रद्धा है.

यह सुनकर लक्ष्मीजी प्रसन्न हो गईं और पुनः श्रीविष्णु के ह्रदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगी.

हे पार्वती! महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था. इस कारण हरिप्रिया उसी वृक्षरूपं में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगी.

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