यह कथा ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग से जुड़ी है. विंध्य पर्वत के तप से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने उन पर वास करने का वरदान दे दिया. शिवजी ज्योतिर्लिंग स्वरूप में विंध्य पर विराजे.

विंध्य ने शिवजी का यह घोर तप मेरू पर्वत से श्रेष्ठ होने की मनोकामना से किया था. परंतु जब भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हो गए तो उनके साक्षात सामने देखकर विंध्य तप का उद्देश्य भूल गए.

उन्होंने शिवजी से मेरू से श्रेष्ठ होने के स्थान पर शिवजी के विराजने का वरदान मांग लिया. ऋषियों को आशंका हुई कि विंध्य को कहीं फिर से वही श्रेष्ठता की इच्छा न जागृत हो जाए.

विंध्य ने वचन दिया कि वह शिवभक्तों की सुविधा के लिए अपना आकार और स्वरूप नहीं बढ़ाएंगे. परंतु दैवयोग से विंध्य की पुरानी इच्छा पुनः जाग उठी. भोलेनाथ को ध्यान में धरकर वह शरीर बढ़ाने लगे.

विंध्य ने इतनी ऊंचाई बढ़ा ली कि बिना उनकी आज्ञा के कोई उन्हें लांघ भी न पाता था. हालांकि शिवभक्तों के लिए वह मार्ग दे देते थे. इससे विंध्य में अहंकार आ गया.

एक बार विन्ध्यांचल सूर्यदेव से किसी बात पर रूठ गए. सूर्यदेव को सबक सिखाने के लिए उन्होंने अपनी ऊंचाई बढ़ा ली और उनका मार्ग रोककर खड़ा हो गया.

सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया. वह दक्षिण की ओर जा ही नहीं पाते थे. सूर्य ने ब्रह्मदेव से कहा कि विंध्याचल को झुकने को कहिए.

पर्वतों को गगनचुंबी होने का वरदान स्वयं ब्रह्मा ने दिया है. वह किस नाते उसे घटने को कहते! विंध्याचल किसी को पीड़ित तो कर नहीं रहे थे कि देवता उन पर दबाव बनाएं.

सूर्य अजीब संकट में फंसे थे. कौन मदद करे? वह अगस्त्य मुनि की शरण में गए और बताया कि यदि वह दक्षिण नहीं गए तो विंध्याचल पार बसे मानव संकट में आ जाएंगे.

सूर्य की समस्या दूर करने के लिए अगस्त्य विंध्याचल के पास गए. उन्होंने विंध्याचल से कहा- मुझे दक्षिण की ओर जाना है. लेकिन तुम्हारे कारण नहीं जा पा रहा.

विंध्याचल ने कहा-आपको राह देने के लिए मैं झुक जाता हूं. अगस्त्य मान गए. उन्होंने कहा- जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूं, तब तक तुम झुके रहना.

विन्ध्याचल अगस्त्य के आदेश पर झुका लेकिन अगस्त्य फिर लौटे ही नहीं. विन्ध्य उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गए सूर्य का सदा के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया.

सूर्यदेव के संकट का समाधान निकालने के कारण अगस्त्य मुनि की बड़ी प्रशंसा हुई. कालकेय दैत्यों से परेशान देवताओं ने अगस्त्य मुनि से सहायता मांगी.

कालकेय, देवों पर आक्रमण करके समुद्र के जल में छिप जाते. अपने साथ वे देवलोक की कन्याओं को भी ले जाते.

समुद्र के जल के अंदर वे देवों पर बीस पड़ते थे. इसलिए देवों को सागर तट से लौट आना पड़ता. अगस्त्य ने देवों की सहायता का वचन तो दे दिया लेकिन कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था.

आखिरकार वह इंद्र के पास गए और उनसे कहा कि आप अपनी सारी सेना लेकर सागरतट पर पहुंचें. मैं समुद्र को सोखता हूं.

देव सेना के पहुंचते ही अगस्त्य ने समुद्र का सारा जल पी लिया और देवताओं ने कालकेयों को परास्त कर दिया.

समुद्र का जल अगस्त्य मुनि के सोखने से घट गया था. जब भगीरथ गंगा को धरती पर लाने का तप कर रहे थे तो गंगा ने पूछा कि मुझे विश्राम कहां मिलेगा.

गंगा के जल को समुद्र में विश्राम का स्थान मिला. इस तरह समुद्र के जल की भी पूर्ति हो गई.

मित्रों, अगस्त्य मुनि की बड़ी प्रतिष्ठा है. ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य जी हैं.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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