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नारद जी ने का आगे कहा, द्विजवर्मा को इसके पछतावे लिये बारह वर्ष तक प्रेत बन कर घूमना पड़ेगा. उधर नारद ने द्विजवर्मा की पत्नी से कहा कि तुमने उसे भले काम में लगाया, इसलिये तुम तो ब्रह्मलोक में जाओगी.
किरात लकड़हारे वीरदत्त यानी द्विजवर्मा की पत्नी अपने पति के दुःख से दुःखी थी, वह बोली मैं तो वही गत चाहती हूं जो मेरे पति की हो. जब तक मेरे पति के देह नहीं मिलती, कहीं नहीं जाउंगी. यह जवाब सुन कर नारद खुश हो गये.
नारद जी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर द्विजवर्मा की पत्नी को इस लायक बना दिया कि वह भगवान शंकर की विधिवत आराधना कर सके और कहा किसी तीर्थ में जाकर अपने पति की सद्गति और मुक्ति के लिए महादेव की पूजा और जप करो.
द्विजवर्मा की पत्नी ने बड़ी लगन से भगवान शिव की आराधना की. इससे उसे पुण्य लाभ तो हुआ ही द्विजवर्मा के चोरी का सारा पाप भी धुल गया, दोनो पति पत्नी को उत्तम लोक मिला.
द्विजवर्मा को तो स्वर्ग में गाण्पत्य पद प्राप्त हुआ ही वज्र चोर तथा कांची पुरी के जिस भी धनी का धन उसके द्वारा की गयी चोरी के जरिये इस धर्म कर्म में लगा था वे सब भी सपरिवार स्वर्ग चले गये. (स्रोत : ब्रह्मांड पुराण)
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