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जनकजी बोले- ऋषिकुमार तुम कहते हो कि संसार के सारे शास्त्र पढ़कर समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया है. क्या यही ज्ञान है? इसी के आधार पर संसार को मिथ्या कह रहे हो. तुम्हारा मोह तो खूंटी पर लटके साधारण वस्त्रों से लिपटा है.
मोह ही अज्ञान की वह रस्सी है जिसमें सारा ज्ञान उलझकर छटपटाता रह जाता है. कुछ प्राप्त करने के स्थान पर कुछ प्रदान करने की भावना से बिताया एक दिन प्राप्ति की इच्छा वाले सौ दिनों से ज्यादा सुखमय होता है. यही ब्रह्म सत्य है.
तो अब आते हैं बंधु की बात पर. मित्रवर! आपके परिजन तन से तो सत्संग में होते हैं पर मन उनका घर की खूंटी में टंगा रहता है.
उनके कानों ने बातें सुन तो लीं आनंदित भी हुए पर उसे आगे हृदय तक भेजा नहीं. इसलिए उनका सत्संग ऋषिपुत्र जैसा ही है जो लंगोट और धोती तक ही उलझा है.
आत्मा तक ज्ञान को पहुंचने ही नहीं दे रहे तो फिर वह आत्मा को निर्मल करेगा कैसे?
दोष सत्संग का नहीं है. न दोष सोशल मीडिया का है. दोष हमारा है कि हम वहां से लेकर क्या आ रहे हैं? बहुत से लोग मंदिरों में जाते हैं टाइमपास करने, कुछ जूते चुराने, कुछ मुफ्त का प्रसाद खाने और कुछ अभद्रता करने.
इसका अर्थ यह नहीं हो गया कि मंदिर इसका ही स्थान है. ज्यादातर लोग मंदिर मानसिक शांति और नई आशा की आस से जाते हैं और उन्हें वह मिलती भी है. जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तीन्हिं देखि तैसी.
अब आपकी भी बात कर लेते हैं. संभव है कि घर में य़ुद्ध की मुद्रा में रहने वाले लोग इतने ज्यादा हैं कि उन सेनानायकों के सामने आप शस्त्र उठाने की हिम्मत न कर पा रहे हों परंतु गति आपकी भी वही है.
आपने कहा कि बस जब मौका मिले चलते-फिरते पढ़ लेता हूं. मंदिर दिख गए तो प्रणाम कर लेता हूं, बाकी का खाली समय सोशल मीडिया में निकल जाता है.
यदि उन्हें सत्संग का लाभ नहीं हो रहा तो आपको भी फेसबुक, व्हॉटसएप्प का क्या लाभ हो रहा है कहना मुश्किल है.
आप अपनी जीवनचर्या का गहराई से अवलोकन करिएगा, आप पाएंगे कि जब से आप इन चीजों में ज्यादा समय देने लगे हैं आपका प्रोफेशनल जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है. आपकी झल्लाहट बढ़ी होगी. ऑफिस में जो लोग आपके अजीज हुआ करते थे अब उनसे कट रहे हैं आप.
आप एक बार स्वयं प्रयास करके देखिए घर की व्यवस्था दुरुस्त करने का. सत्संग मंडली या टीवी पर प्रवचन दे रहे बाबा की जिम्मेदारी नहीं है आपका परिवार.
एक प्रयास आप स्वयं भी करके देखिए. शायद सत्संग में वे यही सीख कर आए हों कि घर का भर्ता यानी सबके लिए पेट भरने का प्रबंध करने वाला जो राह दिखाए उस पर चलना चाहिए. भर्ता तो उन्हें कोई राह ही नहीं दिखा रहा. झल्लाकर बस कह रहा है कि दिल करता है घर ही छोड़ दूं.
छोड़ने से नहीं जोड़ने की बात कहने से बनेगी बात.
-राजन प्रकाश
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