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थोड़ी देर में वही सेवक फिर लौटा. वह पहले ले ज्यादा व्याकुल था.

उसने जनकजी को आग का पूरा ब्योरा दिया कि आग बढ़ती-बढ़ती महल में कहां तक पहुंच चुकी है, क्या-्क्या जलाकर खाक कर दिया है.

सेवक ने कहा- महाराज आग आपके अपने शयनकक्ष तक पहुंच चुकी है. प्रयास हो रहे हैं पर आग बुझती ही नहीं.

जनक ने कहा- यह चिंता की बात तो है परंतु तुम अभी जाओ. आग का क्या है, अपना प्रकोप दिखाएगी. मेरी प्रिय वस्तुए जला जाएगी पर यहां उससे ज्यादा आवश्यक कार्य हो रहा है.

यहां ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही है. इसमें आग को बाधक नहीं बनना चाहिए. संसार मिथ्या है. आग को अपना काम करने दो, हमें अपना काम करने दो.

जनक स्थिरभाव से रहे और उस ऋषिकुमार को उपदेश देना जारी रखा.

सेवक बीच-बीच में बार-बार आता और विनम्रता से आग का ब्योरा देकर जाता. बार-बार आग की बात सुनकर ऋषिकुमार का ध्यान ब्रह्म उपदेश से हटकर आग की गति पर जा टिका.

जनकजी उसके सामने ब्रह्म व्याख्या कर रहे थे किंतु वह तो अंदाजा लगा रहा था कि आग अब कहां तक पहुंची होगी.

थोड़ी देर में सेवक फिर लौटा और घबराते हुए बोला- महाराज, क्षमा करें. अब तो आग अतिथिगृह तक पहुंच गई है जहां ऋषिपुत्र ठहरे हैं.

इस पहले कि जनक कुछ उत्तर देते वह ऋषिपुत्र खड़ा हुआ और घबराते हुए बोला- महाराज मेरी तो लंगोट और धोती टंगी है, कक्ष में. मैं उसे उतार लाता हूं, कहीं जल न जाए. ब्रह्मचर्चा तो होती रहेगी.

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