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श्रीहरि बोल पड़े- पर नारदजी आप एक बात भूल रहे हैं. वामन अवतार ने इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था. फिर आकाश से विराट तो वामन हुए.
नारदजी ने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और बोवे- भगवन आप ही तो वामन अवतार में थे. फिर आपने सोलह कलाएं भी धारण कीं और वामन से बड़े स्वरूप में भी आए. इसलिए यह तो निश्चय हो गया कि सबसे बडे आप ही हैं.
भगवान विष्णु ने कहा- नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी अपने भक्तों के छोटे से हृदय में विराजमान हूं. वही निवास करता हूं. जहां मुझे स्थान मिल जाए वह स्थान सबसे बड़ा हुआ न!
इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं. उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है. तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो.
श्रीहरि की बात सुनकर नारदजी के नेत्र भर आए. उन्हें संसार को नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद भी हुआ और अपनी बुद्धि के लिए खेद भी.
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