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पंडितानी ने चूल्हे से जलती लकड़ी निकाली और उगना यानी महादेव को दागने दौड़ीं. विद्यापति ने देखा तो उनसे रहा नहीं गया.

वह दौड़कर पंडितानी और उगना के बीच आकर खड़े हो गए. उनके मुंह से निकला- ये क्या कर ही हो भाग्यवान, जिसके हाथ तुम तुम जलती लुक ये तो तीनो लोगों के स्वामी हैं.

विद्यापति का वचन भंग हो चुका था. उन्होंने महादेव की वास्तविकता प्रकट कर दी थी. जगदंबा की योजना पूरी हो चुकी थी. वो स्वयं पधारीं, विद्यापति को अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में दर्शन दिया और दोनों स्वधाम कैलाश पधार गए.

अपने प्रिय भगवान के वियोग में विद्यापति भी बहुत ज्यादा दिनों तक भूलोक पर नहीं रहे. उनके शिवलोक गमन पर स्वयं मां गंगा ने अपनी लहरों को आगे बढ़ाकर विद्यापति के पार्थिव शरीर को अपनी गोद में जगह दी.

संकलनः अंशुमान आनंद
संपादनः राजन प्रकाश

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