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तब गुरुजी हंसे और उन्होंने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया. शिष्य दंग रह गया. उसके मन के प्रत्येक कोने में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे. ऐसा कोई कोना ही न था जो निर्मल हो.
गुरुजी बोले- बेटा यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था न कि दूसरों के दुर्गुण खोजने के लिए.
जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता.
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है. स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता. इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके.
कितनी बड़ी बात कही उन्होंने. बेशक संसार में दुर्गुणों की भरमार है परंतु हममें भी कम अवगुण तो नहीं हैं. किसी और में दोष खोजने से बड़ा अवगुण क्या है. यदि हम स्वयं में थोड़ा-थोड़ा करके सुधार करने लगें तो हमारा व्यक्तित्व परिवर्तित हो जाएगा. पर हम ऐसा करेंगे नहीं.
कारण, सबसे कठिन कार्य तो यही है स्वयं की कमी को परखना, उसे स्वीकारना और ठीक करने की हिम्मत दिखाना. हम अपनी कमियों को ढंकने के लिए कैसे-कैसे बनावटी सहारे लेते हैं.
अपने अंदर आई हर कमी के लिए दूसरों को दोषी मानने लगते हैं. मैंने यह काम इसलिए किया क्योंकि उसने मुझसे ऐसा करा. मेरे अंदर ये बुराई इसलिए क्योंकि इसी बुराई से मैं दूसरे पर हावी हो रहा हूं.
उसने यह न किया होता तो मैं ये न होता, आदि आदि. आप अपने लिए जिम्मेदार हैं. किसी और के कारण आप अपने अंदर दुर्गुण क्यों भरते जा रहे हैं. ये दुर्गुण ऐसे हावी होंगे कि आप इनका प्रयोग ऐसे लोगों पर भी करेंगे जो इससे मुक्त थे. फिर उसे भी आपकी तरह बहाने मिलेंगे.
जरा शांति से सोचिएगा कि आप क्या करते जा रहे हैं.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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