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गुरूजी मुस्कुराए. वह समझ गए कि यह कोई रटा-रटाया तोता भर है जो प्रवचन को बस जैसे कहा जाता है वैसे सुन लेता है उसका कोई चिंतन-मनन नहीं करता.
महात्माजी बोले- जब रामायण की रचना हुई थी तब मैं नहीं था. जब श्रीराम वन में भटक रहे थे, तब मेरा कोई अस्तित्व नहीं था. मेरा ज्ञान भी अभी उतना पक्का नहीं कि रामायण की प्रासंगिकता पर कोई टिप्पणी कर सकूं.
हां इतना जरूर कह सकता हूं कि रामायण के अध्ययन से मिलने वाली शिक्षा से सुधरकर मैं आज यहां हूं जहां लोग सम्मान दे रहे हैं. चाहो तो तुम भी इसका प्रयोग आरंभ करो और जीवन को सुधारकर परिवर्तन को स्वयं महसूस करो.
धर्मग्रंथों या नीतिग्रंथों की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाने से अच्छा है उसके कुछ गुणों को अपनाकर देखा जाए. विज्ञान प्रयोगशाला में परीक्षण के सिद्धांत की बात कहता है.
मनुष्य के जीवन से बड़ी लेबोरेट्री क्या होगी. जो धर्मग्रंथों का माखौल उड़ाने लगें उन्हें आप कम से कम एक ऐसा आदर्श बदलाव जीवन में लाने को कहें जो हमारे आराध्य देवों में थे. जीवन में आए परिवर्तन के साथ ही उनके आंखों पर पड़ी पट्टी उतर जाएगी.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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