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उस व्यक्ति ने बताया- महाराज जी पता नहीं क्या हुआ कैसे हुआ पर मेरा घर जलकर राख हो गया. बाल-बच्चे सब एक स्कूल के अहाते में रह रहे हैं. स्कूल वालों ने भी कह दिया है कि सप्ताह-दस दिनों में इंतजाम कर लो. इस कारण ही परेशान चल रहा हूं और नहीं आ सका.

महात्माजी ने सबसे कहा- ईश्वर ने यह कोप किया. इस माध्यम से वह सभी भक्तवृंद की परीक्षा भी लेना चाहते है कि क्या आप अपने साथी की सहायता करेंगे. वह आपकी परीक्षा ले रहे हैं इसलिए जिससे जो बन पड़े, इस भगत की सहायता करें.

वहां एक चादर घुमाई गई. सबने अपने-अपने सामर्थ्य से कुछ न कुछ पैसे डाले.

चादर घूमती-घूमती मजदूर के वेष में बैठे सेठ के पास भी आई. सेठ ने दस हजार रूपए डाल दिए. सबकी आंखें फटी रह गईं.

उस व्यक्ति से तो किसी को एक रुपए के दान की भी उम्मीद ही नहीं थी. सब उसे कंगाल और नीच पुरुष समझते थे जो अपनी हैसियत अनुसार पीछे बैठता है.

सबने उसकी दानशीलता की बड़ी प्रशंसा की. उसके बारे में अब सब जान चुके थे.

अगले दिन सेठ फिर से उसी तरह मैले कपड़ों में आए और स्वभाव अनुसार पीछे बैठ गए.

सब उनके आते ही स्वागत को खड़े हो गए और उसे आगे बैठने के लिए स्थान देकर प्रार्थना की पर सेठ ने मना कर दिया.

फिर महात्माजी स्वयं बोल उठे- सेठजी आप यहां आएं, मेरे पास बैठिए. आपका स्थान पीछे नहीं है.

सेठजी को महात्माजी की बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ. उन्हें महात्माजी से तो ऐसी आशा न थी.

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