शिवजी ने कामदेव को भस्म किया और उसकी राख से गणेश जी ने कैसे बना दिया भंडासुर. शिवभक्त भंडासुर कैसे देवताओं को शत्रु हो गया. भंडासुर का अंत करने के लिए क्या करना पड़ा. क्या भंडासुर शिवजी की माया से रचा गया था. मूल प्रयोजन तो आदिशक्ति पराशक्ति मां ललिताम्बा का अवतरण था.
भंडासुर की यह कथा बड़ी रोचक और ज्ञानप्रद है.

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भगवान शंकर ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला तो दिया पर कामदेव की भस्म अनंत वर्षों के लिए वहीं पड़ी रह गयी. एक दिन गणेशजी खेलते-खेलते वहां पहुंचे और उस भस्म से एक मनुष्य जैसा आकार देने लगे. गणेश जी ने बढिया मूर्ति बनायी. देखते देखते ही वह पूरा आकार ले गयी.
एक जीते जागते बालक में बदल गयी. बालक भी कामदेव सरीखा सुंदर था. गणेश जी ने तो उसे प्रसन्नता से गले ही लगा लिया. गणेशजी ने उस बालक को शतरुद्रीय का उपदेश किया और उससे कहा- शिवशंकर की स्तुति करो.
बालक ने वैसा ही किया जैसा गणेशजी ने कहा था किया. शिवजी ने भी उसे देखा तो बड़े खुश हुए.
ब्रह्माजी जब उसे देखते तो उसे भंड-भंड कहकर पुकारते क्योंकि वह राख से बना था. भंड के दो मतलब होते हैं पहला कल्याण हो, तो दूसरा किसी के द्वारा अपमान या हंसी का पात्र बनो. भंड ने जीवन में दोनों का स्वाद चखा.
आगे चलकर उसका नाम भंडासुर रखा गया.
भंड भगवान शिव की मन लगाकर पूजा करता. एक दिन जब भगवान शिव ने देखा कि यह गणेशजी का बड़ा आज्ञाकारी है तो उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा- जो मन चाहे वर आज मांग लो.
भगवान शिव के ऐसा कहने पर भंड़ ने कहा- मुझे वरदान दीजिये कि मैं देवता आदि किसी प्राणी के हाथों न मारा जाऊं.
महादेव ने उसे यह वरदान तो दिया ही साथ ही हर तरह के दिव्य अस्त्र-शस्त्र और साठ हजार साल के लिए राजसुख भी दे दिया.
औघड़दानी के इस वरदान की चर्चा स्वर्ग में फैली तो ब्रह्माजी ने फिर से कहा- भंड–भंड.
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को भंड के इस वरदान की सूचना मिली. उन्हें भंड में अवसर नजर आया. शुक्राचार्य भंड के पास आए और उसे समझाया कि शिवजी के वरदान का उसे उपयोग करना चाहिए. इसके लिए उसे एक गुरू की जरूरत है. शुक्राचार्य भंड के गुरू बने और नाम दिया भंडासुर.
उन्होंने मय को बुलाया और शोणितपुर नामक नगरी को फिर से सजवाया. भंडासुर को उसका राजा बनाया गया.
शिवभक्त भंड़ासुर के राज में दैत्य भी धर्म-कर्म से चलते. भंडासुर खुद भी शिवजी की पूजा करता. जगह जगह वेद पाठ किए जाते. घर-घर यज्ञ होता. ऐसे ही धर्म-कर्म पूर्वक साठ हजार बरस बीत गए.
पर असुरों का साथ होने से धीरे-धीरे भंडासुर माया की चपेट में आ ही गया. भंडासुर की चार पत्नियां पहले से थीं, वह एक और दिव्य अप्सरा के प्रेम में पड़ गया. पहले भंडासुर के प्रिय मंत्री, फिर भंजासुर के सेवक और बाद में प्रजा भी विलासी बन गयी.
अब भंडासुर के शोणितपुर में भगवान शिव का कोई नाम लेवा था न कोई पूजा पाठ करता था.
दैत्यों के भय से अपना घर परिवार छोड़ बिल, खोह, पाताल समुद्र में रह रहे देवता यह पतन देख अपने घर लौट आए. बहुत दिनों बाद इंद्र भी सिंहासन पर बैठने का साहस कर पाए. उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाने की सोची. देवताओं ने उत्सव का आयोजन किया और उसमें पहुंचे नारद जी. नारद जी आएं और कुछ नया न हो, ऐसा कैसे संभव था.
नारदजी ने इंद्र पर तंज कस दिया.
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