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श्रीगणेशजी का एक मंत्र आपने अवश्य सुना होगा. हर मांगलिक कार्य के आरंभ में जो मंत्र आवश्यक रूप से पढ़े जाते हैं उनमें है यह मंत्र-
वक्रतुंड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरू में देव, सर्वकार्येषु सर्वदा।
इस मंत्र में श्रीमहागणपतिजी के वक्रतुंड स्वरूप की सर्वप्रथम आराधना की गई है, आह्वान किया गया है. श्रीमहागणेश के भी रूप हैं! आश्चर्यचकित न हों. श्रीमहागणपति के स्वरूपों की ज्यादा चर्चा हुई ही नहीं है. उनके अनेक रूप है.
श्रीमहागणपति को परमदेव और प्रथम पूज्य माना जाता है. ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि श्रीमहागणपति शिव-पार्वतीजी के पुत्र हैं. शिव-पार्वतीजी के पुत्र गौरीपुत्र श्रीगणेश तो महागणपति के अवतार हैं.
माता जगदंबा तो जगत्माता हैं. सभी उनके अंश हैं इसमें कहां शंका है, परंतु महागणपति परमदेव हैं. उनका अस्तित्व भी मातृशक्ति के अस्तित्व के साथ ही स्वरूप में आ गया था. वह शिव-पार्वती के साथ सहअस्तित्व के लिए एक रूप धारण करते हैं सांसारिक दृष्टि से उन्हें ही गणेश मान लिया जाता है. इसमें कोई हर्ज भी नहीं है पर यह तो जानना ही चाहिए कि गणपति तत्व वा्स्तव में है क्या?
वास्तव में कौन हैं श्रीमहागणेश, इसकी चर्चा प्रभु शरणम् एप्पस में आरंभ हो चुकी है. आप गणपति रहस्य से परिचित होकर आनंदित हो रहे होंगे. अपने इष्टदेव के बारे में गूढ़ ज्ञान से परिचित होकर कौन भक्त आनंदित नहीं होगा?
गूढ़ ज्ञान पर चर्चा तो हो ही रही है, हम आपको श्रीमहागणेश के अवतारों की कथाएं भी सुनाएंगे. जब गणपति मस्तकविहीन होने के बाद पुनः उठे तो सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियां प्रदान की थीं. अर्थात गणपति की आराधना से सभी देवताओं की आराधना के फल प्राप्त होते हैं.
गणपति उत्सव आरंभ हो चुका है. हम प्रतिदिन गणेशजी के एक अवतार की कथा और एक विशेष मंत्र के बारे में उपयोगी जानकारियां देंगे. आज पढ़िए- गणपति के प्रथम अवतार की कथा.
देवराज इन्द्र देवताओं के राजा हैं. देवों के समस्त ऐश्वर्य-सामर्थ्य के वह स्वामी हैं. ऐश्वर्य और शक्ति के साथ अभिमान आ ही जाता है. वैसे भी देवराज माता लक्ष्मी के उपासक हैं. राजा तो धन और बल को ही साधने में लगा रहता है. इससे जो भाव उत्पन्न होता है- उसे मत्सर कहते हैं.
प्रमाद तो विकार है. देवराज श्रीविष्णु, श्रीब्रह्माजी, श्रीमहादेव, जगदंबा, श्रीमहागणेश आदि देवों एवं ऋषियों-तपस्वियों के दर्शन प्रायः करते ही रहते हैं. उत्तम लोगों के दर्शन से जीव के अंदर बैठा विकार भयभीत रहता है और वह उस शरीर का शीघ्र त्याग करना चाहता है जो अच्छी संगति में रहता हो.
देवराज इंद्र के अंदर बैठे प्रमाद ने इंद्र के शरीर का त्याग किया तो उससे एक भयंकर असुर का जन्म हुआ- असुर का नाम पड़ा मत्सर.
मत्सर विकार का स्वरूप था, आसुरी गुणों से युक्त था था इसलिए देवों के बीच उसे स्थान न मिला. आश्रय के लिए वह देवशत्रुओं की ओर चला. इस प्रकार वह दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की शरण में पहुंच गया.
शुक्राचार्य ने परख लिया कि मत्सर इंद्र के अंश से पैदा हुआ है अतः देवताओं से ज्यादा शक्तिशाली है. असुर कोटि का होने से इसमें असुरों वाले मायावी लक्षण भी हैं. अतः यही देवताओं को परास्त कर सकता है.
शुक्राचार्य ने मत्सर को भगवान् शिव के पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय की दीक्षा दी और उसे शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या करने को कहा. मत्सरासुर शुक्राचार्य द्वारा बताई विधि से शिव आराधना करने लगा.
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