एक बार समर्थ गुरु रामदासजी रामकथा सुना रहे थे. जहां रामकथा हो वहां कथा सुनने हनुमानजी जरूर आते हैं. रामदासजी अशोक वाटिका प्रसंग का आनंदपूर्वक वर्णन कर रहे थे.
रामदासजी ने बताना शुरू किया- जब हनुमानजी अशोक वाटिका में माता सीताजी के दर्शन करने के बाद सरोवर पार कर रहे थे तो उन्होंने सरोवर में श्वेत कमल के फूल देखे और…
इससे पहले कि रामदास अभी आगे कुछ और बोलते, कथा सुनने वालों के बीच से एक ब्राह्मण उठ खड़े हुए और कथा पर प्रश्न खड़े करने लगे. ब्राह्मणवेश में स्वयं हनुमानजी थे.
ब्राह्मण वेशधारी हनुमानजी बोले- आप रामकथा तो अच्छी कर रहे हैं पर इसमें थोड़ी त्रुटि है. इसे सुधार लें तो अच्छा रहे. आपने कहा कि हनुमानजी ने सरोवर में श्वेत कमल देखे. वे कमल श्वेत नहीं लाल थे.
अचानक पड़े इस व्यवधान पर रामदासजी ने एक पल विचारा फिर कहा- ठीक है, अब बैठो और कथा का आनंद लो. उन्होंने कथा पुनः शुरू की. फिर बोले- हनुमानजी ने सरोवर में श्वेत कमल देखे.
वह ब्राह्मण फिर उठे. इस बार वह थोड़े कठोर स्वर में बोले- अभी-अभी मैंने आपको बताया कि फूल श्वेत नहीं लाल थे. अपनी गलती सुधार लें. आप बार-बार बस एक गलती कर जाते हैं.
रामदासजी भी इस बार-बार के व्यवधान से उब गए. उन्होंने कहा- ब्राह्मण देव आपको यदि कथा सुननी है तो ठीक है. जो कहता हूं वह सुनो, नहीं तो आप जा सकते हैं. विघ्न न डालें.
अब ब्राह्मण ने कहा- महात्माजी मैं आप को बता दूं कि मैं ही हनुमान हूं. जब मैं सरोवर पार कर रहा था तो मैंने कमल के जो फूल देखे थे, वे श्वेत नहीं लाल थे. अब तो विश्वास करो.
रामदासजी बोले- यदि आप ही हनुमानजी हैं तो प्रभु आप ज्यादा ध्यान से कथा सुनें. नहीं सुनना हो तो जा सकते हैं. हनुमानजी तैश में आ गए- नहीं, मैं आप को गलत कथा नहीं करने दूंगा.
अब समर्थ गुरूरामदासजी ने कहा- मेरी कथा सहीं है या गलत इसका निर्णय तो अब श्रीरामजी ही करेंगे. हनुमानजी ने यह सुना तो प्रसन्न हो गये और बोले ठीक है.
दोनों ने ध्यान लगाकर श्रीरामजी को प्रणाम किया. हनुमानजी ने सारी बातें उन्हें बताईं. श्रीरामजी ने मुस्कराते हुए कहा- प्रिय हनुमान, इनसे शीघ्र क्षमा मांग लो. हनुमानजी ने प्रभु की आज्ञा का पालन तो कर लिया पर मन संदेह से भरा रहा.
श्रीरामजी बोले- हनुमान सुनो. जब तुम सरोवर लांघ रहे थे तो सीता की दशा को देखकर तुम्हें भयंकर क्रोध आया. इस कारण तुम्हारी आंखें लाल हो गई थीं. तभी तुम्हें श्वेत फूल लाल लग रहे थे. पर कमल थे तो श्वेत ही.
समर्थन गुरू रामदासजी भगवान श्रीराम द्वारा प्रदत्त अपने दिव्य नेत्र से देखकर यह कथा सुना रहे थे. इस नेत्र से कभी गलत का प्रश्न ही नहीं उठता. संभव है यह कथा किंवदंती हो, परंतु हम इसका भाव समझें वही उपयोगी है.
जो भी ग्रंथ लिखे गए हैं वे हमारे समर्थ ऋषि-मुनियों ने उस अवस्था को प्राप्त करके दिव्य वाणी कही और ग्रंथो की रचना की है. जब भी ईश्वर को कुछ रचना करानी होती है वह ऐसे दिव्य नेत्रों किसी ज्ञानी को प्रदान कर देते हैं.
संकलनः डॉ. विजय शंकर मिश्र
संपादनः राजन प्रकाश
यह भक्ति कथा डॉ विजय शंकर मिश्रजी ने रायबरेली, उत्तर प्रदेश से भेजी. डॉ. विजय शंकरजी पेशे से चिकित्सक हैं. श्रीरामभक्ति में लीन रहते हैं. रामचरितमानस और रामकथाओं पर इनकी सुंदर साधना है. प्रभु शरणम् में डॉ. मिश्र की भेजी कथाएं प्रकाशित होती रहती हैं.