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चंद्रमा ने अमृत घट से अमृत के प्रस्रवण होने से, सूर्य ने उस घट के फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से उस घट की रक्षा की. इन सबमें बारह दिन देवताओं को लग गए.
फिर श्रीहरि ने असुरों के हाथ से अमृत को बचाने के लिए मोहिनी रूप धरा और अमृत वितरण किया.
देवों के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं. इसलिए कहा जाता है कि कुंभ भी बारह होते हैं. उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं, शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं. वह देवगणों को ही प्राप्त हैं.
जिस समय में चंद्र सूर्य गुरू आदि ने कलश की रक्षा की थी, उस समय ग्रहों की जो खास स्थिति थी, वैसी स्थिति जब भी आकाशमंडल में बनती है तब-तब पृथ्वी पर कुंभ का आयोजन होता है.
सरल शब्दों में समझें तो जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ आयोजन होता है.
कुंभ की शुरुआत संत महात्माओं के स्नान से होती है. इसे आज की भाषा में शाही स्नान कहते हैं. शाही स्नान नाम पड़ने के पीछे भी एक बड़ी खूनी कथा है.
कुंभ में स्नान को लेकर दो साधुओं में आपस में बड़ा संघर्ष हुआ. उसमेंबहुत से लोगों की जान गई. तब के शाशकों ने उसे व्यवस्थित करने और संघर्ष को टालने के लिए अखाड़ों के स्नान की एक विधि-व्यवस्था बनाई और अखाड़ों को इसके लिए राजी कर लिया.
इसी व्यवस्था में समय-समय पर कुछ सुधार हुए और इसका नाम शाही स्नान स्वीकार किया गया. हालांकि संघर्ष उसके बाद भी होते रहे हैं. 1310 में महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था.
शाही स्नान का इतिहास और कथा भी जितनी रोचक है उतनी ही विस्तृत. उस कथा का इतिहास भी बताउंगा पर पहले आज यह समझते हैं कि आखिर संतों के स्नान से ही कुंभ की शुरुआत क्यों होती है. इसकी एक पौराणिक कथा है.
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dhyan jivan paramaatamaa se milaa detaa hai jisase tum shvyam ho jaaoge.