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शास्त्रों में बहुत सी कथाएं भक्ति का रस लेने के लिए कही गई हैं. ईश्वर की परम सत्ता है, उनके आगे तर्क गौण है. भक्ति में तर्क का स्थान न्यून होना चाहिए. ऐसी ही कथा है दक्षिणा की उत्पत्ति की कथा.
भगवान श्री कृष्ण सभी गोपियां से स्नेह रखते थे. परन्तु उनमें से एक सुशीला थी जिससे प्रभु मित्रवत थे. उसके साथ सखा की तरह विचार-विमर्श किया करते थे.
नाम के अनुरूप सुशीला अति सुन्दर, निपुण, श्रेष्ठ गुणों वाली और बुद्धिमान थी इसलिए प्रभु को प्रिय थी. उसने भी स्वयं को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया था.
सुशीला की भक्ति और निष्ठा तीनों लोकों में प्रसिद्द थी. चूंकि श्रीकृष्ण भी सुशीला से प्रेम करते थे, इसलिए भगवती राधा के सुशीला के प्रति ईर्ष्या भाव रखती थीं.
एक बार सुशीला भगवान् श्रीकृष्ण के पास बैठकर प्रेम से हंसी-ठिठोली कर रही थी. सहसा वहां राधाजी आ गईं. दैवयोग से उस दिन राधाजी के मन में ईर्ष्या उपजी. सुशीला को श्रीकृष्ण के समीप बैठे देख उन्हें क्रोध आ गया.
राधाजी ने सुशीला को उसी समय गोलोक से निष्कासित होने का शाप दे दिया. शापित सुशीला ने तत्काल प्रभु लोक त्याग दिया और हिमालय पर कठोर तप करने लगीं.
इधर, राधाजी के ईर्ष्यालु व्यवहार से रुष्ट श्रीकृष्ण अदृश्य हो गए. राधाजी श्रीकृष्ण के बिना कैसे रहें. उन्हें पश्चाताप भी हो रहा था. दुखी मन से राधाजी ने पुकारा-
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