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उनके यहां एक जटा रुद्राक्ष मालाधारी भिक्षुक प्रतिदिन आया करते थे. सेठानी ने सोचा कि भिक्षुक को कुछ धन आदि दें. सम्भव है इसी पुण्य से मुझे पुत्र प्राप्त हो जाए. ऐसा विचारकर पति की सम्पत्ति से सेठानी ने भिक्षुक की झोली में छिपाकर सोना डाल दिया. परंतु इसका परिणाम उलटा ही हुआ.
भिक्षुक अपरिग्रह व्रती थे. उन्होंने अपना व्रत भंग जानकर सेठ-सेठानी को संतानहीनता का शाप दे डाला. फिर बहुत अनुनय-विनय करने से उन्हें गौरी की कृपा से एक अल्पायु पुत्र प्राप्त हुआ. उसे गणेश ने सोलहवें वर्ष में सर्पदंश का शाप दे दिया था.
परंतु उस बालक का विवाह ऐसी कन्या से हुआ जिसकी माता ने मंगलागौरी-व्रत किया था. उस व्रत के प्रभाव से उत्पन्न कन्या विधवा नहीं हो सकती थी. अतः वह बालक शतायु हो गया. न तो उसे सांप ही डंस सका और न ही यमदूत सोलहवें वर्ष में उसके प्राण ले जा सके. इसलिए यह व्रत प्रत्येक नवविवाहिता को करना चाहिए.
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्
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